Friday, 9 September 2005

संपूर्ण अध्याय 1 - 18.

'श्री साई गुरु महात्म्य' 

अध्याय 1. "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" अर्थात श्री साईबाबा को अपना गुरु बनाने कि दीक्षा विधी । 

श्री गणेशाय नमः । श्री साईबाबा का सदा ही प्रेमपूर्वक स्मरण करो, क्योंकि वे सदैव दूसरों के कल्याणार्थ तत्पर तथा आत्मलीन रहते थे। उनका स्मरण करना ही जीवन और मृत्यु की पहेली हल करना हैं। साधनाओं में यह अति श्रेष्ठ तथा सरल साधना है, क्योंकि इसमें कोई द्रव्य व्यय नहीं होता । केवल मामूली परिश्रम से ही भविष्य नितान्त फलदायक होता है । जब तक इंद्रियाँ बलिष्ठ है, क्षण-क्षण इस साधना को आचरण में लाना चाहिये । अन्य सब देवी-देवता तो भ्रमित करने वाले है, केवल गुरु ही ईश्वर है । हमें उनके ही पवित्र चरणकमलों में श्रद्धा रखनी चाहिये । वे तो हर इन्सान के भाग्यविधाता और प्रेममय प्रभु हैं । जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करेंगे, वे भवसागर से निश्चय ही मुक्ति को प्राप्त होंगे । न्याय अथवा मीमांसा या दर्शनशास्त्र पढ़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार नदी या समुद्र पार करते समय नाविक पर विश्वास रखते है, उसी प्रकार का विश्वास हमें भवसागर से पार होने के लिये सदगुरु पर करना चाहिये । सदगुरु तो केवल भक्तों के भक्ति-भाव की ओर ही देखकर उन्हें ज्ञान और परमानन्द की प्राप्ति करा देते हैं ।
     एक अत्यन्त ही अधिक सम्पन्न व्यक्ति था। वह बहुत धनवान था। उसके पास अटूट धन-सम्पत्ति, कई घर, खेत, जमीन-जायदाद और बहुत से नौकर-चाकर थे। उसे किसी बात की कमी नहीं थी। जब साईं बाबा का यश उसके कानों तक पहुँचा तब एक दिन उसने अपने एक मित्र से कहा, "मुझे किसी बात की कमी नहीं है। इसलिये मैं शिरडी जाउंगा और साईं बाबा से ब्रह्म ज्ञान मांगूंगा। अगर मुझे ब्रह्म ज्ञान मिल जाता है तो मैं अवश्य ही अधिक सुखी हो जाउँगा।" उसके मित्र ने उसे समझाया कि 'ब्रह्म' को जानना सरल नहीं है और विशेष रूप से तुम जैसे लालची के लिये जो हमेशा धन, पत्नी और बच्चों में लिप्त रहता है। ब्रह्म ज्ञान की खोज में कौन तुम्हें सन्तुष्ट करेगा। तुम दान में एक पैसा भी तो नहीं देते हो। अपने मित्र की सलाह पर ध्यान न देते हुये उस धनी व्यक्ति ने आने-जाने का (दोनों ओर का) किराया तय कर एक तांगे से शिरडी पहुँचा। वह मस्जिद में गया, साईं बाबा को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और बोला, "बाबा, यह सुन कर कि जो लोग यहाँ आते हैं उन सबको आप ही ब्रह्म का दर्शन करा देते हैँ, मैं भी अपने दूर के निवास स्थान से आया हूँ। मैं यात्रा से बहुत थक गया हूँ। यदि आपके पास से मुझे ब्रह्म ज्ञान मिल जाता है तो मेरा कष्ट सफल हो जावेगा।" साईं बाबा ने कहा, "मेरे प्यारे मित्र, उतावला मत होवो। मैं तुमको तुरन्त ब्रह्म दिखा दूंगा। मेरे सभी काम नकद होते हैं, उधारी नहीं। कई लोग मेरे पास आते हैं और मुझसे धन, स्वास्थ्य, सम्मान, ऊँचा पद, बीमारी से छुटकारा और दूसरे सांसारिक पदार्थ मांगते हैं। क्वचित व्यक्ति मेरे पास ब्रह्म ज्ञान मांगने के लिये आता है। उन आदमियों की कमी नहीं है जो सांसारिक वस्तुएँ मांगते हैं पर मैं उस क्षण को भाग्यशाली और शुभ मानता हूँ जब तुम्हारे समान व्यक्ति आते और मुझसे ब्रह्म ज्ञान देने का आग्रह करते हैं। इसलिये मैं तुम्हें ब्रह्म के सभी उपकरणों और उलझनों के साथ 'ब्रह्म' दिखाउंगा। यह कह कर बाबा ने उसे ब्रह्म दिखाना प्रारम्भ किया। उन्होंने उसको वहाँ बैठाया और दूसरी बातों तथा विषयों में लगा दिया। इस तरह से उन्होंने उसे थोड़े समय के लिये अपने मूल प्रश्न को भूलने में लगा दिया। फिर उन्होंने एक लड़के को बुलाया और उसे नन्दू मारवाड़ी के पास जा कर उससे पाँच रुपये उधारी मांग कर लाने को कहा। लड़का बाहर गया और कुछ ही देर बाद वापस आकर बोला, "नन्दू नहीं है। उसके घर में ताला लगा हुआ है।" तब बाबा ने उसको बालाजी किराने वाले के पास से उधार मांग कर लाने को कहा। इस बार भी लड़का असफल रहा। यह प्रयोग दो या तीन बार दुहराया गया पर सफलता नहीं मिली। साईं बाबा तो स्वयं ब्रह्म के सगुण अवतार थे। तब कोई यह पूछ सकता है कि पाँच रुपये की एकदम तुच्छ राशि क्यों चाह रहे थे और उसके लिये इतनी उठा-पटक क्यों कर रहे थे? सचमुच में बाबा को उस नगण्य राशि की कोई आवश्यकता नहीं थी। वे अवश्य ही यह भी जानते थे कि नन्दू और बालाजी नहीं मिलेंगे। ऐसा मालूम पड़ता है कि उन्होंने ब्रह्म पाने के लिये आये हुये उन व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिये यह तरीका अपनाया। उस सज्जन की जेब में उस समय नोटों का पुलिन्दा था। यदि उसकी सचमुच ही ब्रह्म देखने की हार्दिक इच्छा होती तो जिस समय बाबा पाँच रुपये उधार लेने के लिये प्रयत्न कर रहे थे उस समय वह चुपचाप मूक दर्शक बने नहीं बैठा रहता और अपने पास से रुपये निकाल कर दे दिया होता। उसे मालूम था कि बाबा अपने वचन का पालन अवश्य करेंगे और उधार ली हुई रकम वापस कर देंगे। तो भी वह निश्चय नहीं कर सका और उसने उधार नहीं दिया। ऐसा आदमी बाबा से संसार की सबसे बड़ी वस्तु 'ब्रह्म ज्ञान' लेना चाहता था। कोई भी दूसरा आदमी जिसके हृदय में साईं बाबा के प्रति प्रेम और भक्ति होती तो वह केवल देखता नहीं रहता किन्तु वह पाँच रुपये निकाल कर दे दिया होता। उसने न तो पैसा ही दिया और न चुप ही बैठा रहा किन्तु अधीर हो गया क्योंकि वह वापस जाने की जल्दी में था। उसने कहा, "मुझे जल्दी ब्रह्म दिखाइये।" साईं बाबा ने जवाब दिया, "मेरे मित्र, इस स्थान पर बैठ कर तुम्हें ब्रह्म दिखाने के लिये जो काम मैंने किया उसे तुमने नहीं समझा। थोड़े में वह यह है कि ब्रह्म देखने के लिये पाँच चीजें समर्पित करनी पड़ती हैं - (1) पंच प्राण (प्राण, अपान, सपान, उदान और व्यान), (2) पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, (3) मन, (4) बुद्धि और (5) अहंकार। ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्म ज्ञान का मार्ग इतना कठिन है जितना तलवार की धार पर चलना। श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।


अध्याय 2. "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" अर्थात श्री साईबाबा को अपना गुरु बनाने कि दीक्षा विधी ।

श्री गणेशाय नमः । तब साईं बाबा ने ब्रह्म ज्ञान विषय पर लम्बा प्रवचन दिया जो संक्षेप में इस प्रकार है - ब्रह्म ज्ञान या आत्म ज्ञान के लिये योग्यताएँ चाहिये। अपने जीवन काल में सभी लोग ब्रह्म ज्ञान का अनुभव नहीं करते। इसके लिये कुछ गुण पूरी तरह से जरूरी हैं:- (1) मुमुक्षत्व:- मुमुक्ष या मुक्त होने की तीव्रतम इच्छा रखने वाले ही ब्रह्म ज्ञान पा सकते हैं। जो यह सोचते हैं कि मैं माया-जाल में फँसा हूँ - मुझे अवश्य ही माया के बन्धन से छूटना ही चाहिये, जो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के लिये किसी की परवाह न करते हुये दृढ़तापूर्वक तपस्या और साधना करता है वही आध्यात्मिक जीवन के योग्य होता है। (2) विरक्ति या वैराग्य:- जो इस संसार की और दूसरी दुनिया की वस्तुओं और सुखों की इच्छा नहीं रखता वही ब्रह्म ज्ञान का अधिकारी होता है। जब तक किसी के मन में लौकिक और पारलौकिक सुखों के प्रति लगाव है तब तक कोई भी ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी हो ही नहीं सकता। (3) अन्तर्मुखता:- ईश्वर के द्वारा हमारी इन्द्रियों की रचना इस प्रकार की गई है कि उनकी प्रकृति और प्रवृति बाहर जाने और घूमने की है। इसलिये आदमी हमेशा बाहर ही देखता है - अन्तर्मुखी नहीं होता। जो आत्मज्ञान और अमरत्व चाहता है उसे अवश्य ही अन्तर्दृष्टि करके अपनी आत्मा को ही देखना ही होगा। (4) निष्पाप मन:- जब तक कोई व्यक्ति दुष्टता नहीं छोड़ता, गलत काम करने से नहीं रुकता और पूरी तरह से अपने आपको शान्त नहीं रखता तब तक वह ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी उस ज्ञान के द्वारा आत्म ज्ञान नहीं पा सकता। (5) सही आचरण:- जब तक कोई व्यक्ती सचाई का जीवन नहीं बिताता तब तक वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। (6) प्रेयस की अपेक्षा श्रेयस को स्वीकार करना:- स्थितियाँ दो प्रकार की होती हैं - प्रेयस और श्रेयस। प्रेयस का अर्थ है सांसारिक सुख का जीवन और श्रेयस का अर्थ है 'अच्छाई'। श्रेयस अध्यात्म की ओर ले जाता है और प्रेयस संसार की ओर ढकेलता है। ये दोनों अपने आपको स्वीकार कराने के लिये आदमी के मन में आते हैं। उस मनुष्य को दोनों में से एक को ग्रहण करने के लिये सोचना पड़ता है। बुद्धिमान मनुष्य सांसारिक सुख की अपेक्षा अच्छाई और अध्यात्म (श्रेयस) को अधिक पसन्द करता है परन्तु जो व्यक्ति बुद्धिमान नहीं है वह मनुष्य लोभ और मोह के कारण प्रेयस अथवा क्षणिक सांसारिक सुख को चुन लेता है। (7) मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण:- शरीर रथ है और आत्मा उसका स्वामी है। बुद्धि सारथी है। मन लगाम है। इन्द्रियों से शरीर रूपी रथ में जुते हुये घोड़े हैं और इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जाने वाली वस्तुएँ मार्ग हैं जिनको समझ नहीं है, जिनका मन सीमित नहीं है और जिनकी इन्द्रियाँ रथ में जुते हुये खराब घोड़ों के समान वश में नहीं है और अनियंत्रित हैं वे गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँचते अर्थात् ब्रह्म ज्ञान नहीं पाते किन्तु जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहते हैं। इसके विपरीत जिसको समझ है, जिसका मन नियंत्रित है और जिसका मन रथ में जुते हुये अच्छे घोड़े के समान नियंत्रित है वह अपने गन्तव्य ब्रह्म ज्ञान या आत्म साक्षात्कार तक पहुँचता है अर्थात् ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसा ज्ञानी विष्णु लोक में पहुँच जाता है। (8) मन की शुद्धता:- जब तक कोई व्यक्ति निर्लिप्त रह कर, सन्तोषजनक और निष्काम रूप से अपने जीवन काल में निर्धारित अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तब तक उसका मन शुद्ध नहीं होता और जब तक मन शुद्ध नहीं होता तब तक वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। केवल शुद्ध मन में ही विवेक और वैराग्य जागृत होता है और उसे आत्म ज्ञान तक ले जाता है। जब तक अहंकार का नाश नहीं हो जाता, लोभ से छुटकारा नहीं मिल जाता और मन इच्छा-रहित नहीं हो जाता तब तक ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। यह विचार कि - "मैं शरीर हूँ - बहुत बड़ी माया और इन्द्रजाल तथा जन्म-मरण के बन्धन का कारण है। इसलिये यदि तुम आत्म ज्ञान पाना चाहते हो तो इस विचार और मोह को एकदम छोड़ दो। (9) गुरु की आवश्यकता:- आत्म ज्ञान इतना सूक्ष्म और रहस्यमय है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी अपने स्वयं के व्यक्तिगत प्रयास से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये जिस गुरु ने स्वयं आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है उस गुरु की सहायता नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है। जो ज्ञान कठिन परिश्रम और प्रयास करके भी दूसरे नहीं दे सकते उसे सदगुरू की कृपा और सहायता से प्राप्त कर लेना सरल हो जाता है क्योंकि सदगुरू जिस मार्ग से चल कर आत्म ज्ञान तक स्वयं पहुँचा है उसी मार्ग से अपने शिष्य को ले जा सकता है। (10) ईश्वर की कृपा:- अन्त में ईश्वर की कृपा सबसे अधिक आवश्यक है। जब परमात्मा किसी पर प्रसन्न हो जाता है तब वह उसे विवेक और वैराग्य दे देता है। इस बातचीत के बाद साईं बाबा उस सज्जन की ओर मुड़े जो ब्रह्म देखने आया था और बोले, "महाशय जी, आपकी जेब में दस दस रुपये के रूप में 250 रुपये हैं। साईं बाबा की सर्वज्ञता देख कर वह व्यक्ति बहुत प्रभावित हुआ और बाबा के चरणों पर गिरकर क्षमा और आशीर्वाद मांगा। तब बाबा ने उससे कहा, "अपने ब्रह्म अर्थात् नोटों के पुलिन्दे को ठीक से मोड़ कर अपने जेब में छिपा लो। जब तक तुम अपने लोभ से छुटकारा नहीं पावोगे तब तक तुम वास्तविक ब्रह्म को नहीं पावोगे। जब तक किसी का मन धन-सम्पत्ति, सन्तान और अपनी सांसारिक प्रगति में लिप्त है तब तक वह ब्रह्म ज्ञान पाने की आशा कैसे कर सकता है? धन का मोह भ्रम जाल से भरे हुये अहंकार के रूप में मगरमच्छ से भरा हुआ गहरा भँवर है। जो इच्छा रहित है केवल वही अकेले अहंकार और लोभ के उस भँवर को पार कर सकता है। लोभ और ब्रह्म दो अलग अलग स्तम्भ हैं। वे दोनों अनादि काल से नित्य एक दूसरे के विपरीत हैं। जहाँ लोभ है वहाँ विचार और ब्रह्म का ध्यान करने के लिये कोई गुंजाइश नहीं है। मेरा खजाना भरा हुआ है और मैं किसी को भी वह दे सकता हूँ। किन्तु मुझे देखना पड़ता है कि जो मैं देता हूँ, उसे पाने के लिये वह योग्य पात्र है या नहीं। अगर तुम मेरी बात सावधानी से सुनते हो तो तुम्हें अवश्य ही लाभ होगा। इस मस्जिद में बैठ कर मैं कभी कोई झूठ नहीं बोलता। साईं बाबा ने अपने उपदेश समाप्त किया। उस समय दूसरे भक्त भी वहाँ बैठे थे। जैसे किसी अतिथि के आने पर उसे जो उत्तम भोजन कराया जाता है वही भोजन उस समय घर के लोगों को भी खिलाया जाता है वैसे ही उस धनवान व्यक्ति को साईं बाबा ने जो आध्यात्मिक भोजन कराया उसका आस्वादन उन सब लोगों ने भी किया जो उस समय मस्जिद में उपस्थित थे। साईं बाबा का आशीर्वाद पाने के बाद उस धनवान व्यक्ति के सहित सभी सन्तुष्ट हो कर चले गये। श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 3.गुरु की आवश्यकता पर बहस।
श्री गणेशाय नमः । हे सदगुरु साई ! तुम धन्य हो ! हम तुम्हें नमन करते है । तुमने विश्व को सुख पहुँचाय और भक्तों का कल्याण किया। तुम उदार हृदय हो । जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्घार किया करते हो । भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो । ब्रह्म के साँचे में शुद्घ आत्मारुपी द्रव्य ढाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है। साई स्वयं ही आत्माराम और चिरआनन्द धाम है । इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया ।
  शिरडी पहुचने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा हेमाडपंत के बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गयी । हेमाडपंत का मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहां रही । प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये । गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है । वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है । इस प्रकार हेमाडपंत ने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का। उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं । कहावत है – हेमाडपंत के मन कछु और है, धाता के कछु और । फिर परामर्शयुक्त शब्दों मे बोले भाई साहब, यह निरी विदृता छोड़ दो । यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा । इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका । इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करणा पड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि हेमाडपंत कि मानसिक शांति भंग हो गई तथा हेमाडपंत को अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुद्धी और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहीं है । वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है । जब अन्य लोगों के साथ हेमाडपंत मसजिद गये , तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं । किस विषय में विवाद था । फिर हेमाडपंत कि ओर दृष्टिपात कर बोले कि इस हेमाडपंत ने क्या कहा । ये शब्द सुनकर हेमाडपंत को अधिक अचम्भा हुआ । साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था । सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था। हेमाडपंत सोचने लगे कि बाबा हेमाडपंत के नाम से क्यों सम्बोधित करते ने । यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है । हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे । वे उच्च कोटि के विद्वान , उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे । उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ हेमाडपंत इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति है । अतः हेमाडपंत के समझ में यह न आ सका कि हेमाडपंत इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं । गहन विचार करने पर हेमाडपंत इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है। भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के द्वारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था । सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विदृतापूर्ण ढ़ग से किया था । हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की । इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है । इस विषय में श्री साईबाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत द्वारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है । परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं । बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी । बाबा ने स्वीकृति दे दी । किसी ने प्रश्न किया – श्री साईबाबा, कहाँ जायें । उत्तर मिला – ऊपर जाओ । प्रश्न – मार्ग कैसा है । श्री साईबाबा – अनेक पंथ है । यहाँ से भी एक मार्ग है । परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है । काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो । श्री साईबाबा – तब कोई कष्ट न होगा । मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्रढे में गिर जाने की सम्भावना है। दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है। उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यक्ती आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिद्ध होगा । प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उपदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था । इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रद्धा और धैर्य-ये ही दो गुण सहायक हैं । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 4. घोड़ी की लीद के नौ(9) 
          गोले (नवधा भक्ति)।
श्री गणेशाय नमः ।शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है। श्री द्घारिकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास किया और वहीं समाधिस्थ हुए । शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया । शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अभिन्न विश्वास के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी । 
  पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे । उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये। दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए । उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, मैंने बहुत कुछ पठन किया । वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी । इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिद्ध हुआ । एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है । जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है । मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्घारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है । यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ । कृपा कर मुझ दास को भी आर्शीवाद दीजिये । तब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही - एक समय एक सौदागर यहाँ आया । उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की । जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति प्राप्त हुई । श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके । इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है । वे बोले कि जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ। घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है नवविधा भक्ति-यथा – श्रवण , कीर्तन , नामस्मरण , पादसेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य या दासता ,सख्यता और आत्मनिवेदन । ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगवान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की । अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो । तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी । दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये । उन्होंने कहा कि मैं अनाश्रित हूँ । आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी, जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्ष का पारावार न रहा । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 5. श्री साईबाबा द्वारा  
          भक्त का शक्तिपात ।
श्री गणेशाय नमः । श्री साई समर्थ धन्य है, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है । वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते है और भक्तों को अपनी जीवनध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें सुखी बनाते है । श्री साई अपना वरद हस्त भक्तों के सिर पर रखकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते है । वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराते है । भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते है और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते है । वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते है, जैसे वर्षाऋतु में समुद्र नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है । इससे यह सिद्ध होता है कि जो भक्तों की लीलाओं का गुणगान करते है, वे ईश्वर को उन लोगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रिय है, जो बिना किसी मध्यस्थ के ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करते है । 
  एक बार श्री. दादासाहेब खापर्डे सहकुटुम्ब शिरडी आये और कुछ मास वहीं ठहरे उनके ठहरने के नित्य कार्यक्रम का वर्णन श्रीसाईलीला पत्रिका के प्रथम भाग में प्रकाशित हुआ है । दादा कोई सामान्य व्यक्ति न थे । वे एक धनाढ्य और अमरावती (बरार) के सुप्रसिद्ध वकील तथा केन्द्रीय धारा सभा (दिल्ली) के सदस्य थे । वे विद्घान और प्रवीण वक्ता भी थे । इतने गुणवान् होते हुए भी उन्हें बाबा के समक्ष मुँह खोलने का साहस न होता था । अधिकाँश भक्तगण तो बाबा से हर समय अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे। केवल तीन व्यक्ति खापर्डे, नूलकर और बूटी ही ऐसे थे, जो सदैव मौन धारण किये रहते तथा अति विनम्र और उत्तम प्रकृति के व्यक्ति थे। दादासाहेब, विघारण्य स्वामी द्घारा रचित पंचदशी नामक प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ, जिसमें अद्घैत वेदान्त का दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परन्तु जब वे बाबा के समीप मसजिद में आये तो वे एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके । यथार्थ में कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारन्गत क्यों न हो, परन्तु ब्रहृपद को पहुँचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता । दादा चार मास तथा उनकी पत्नी सात मास वहाँ ठहरी । वे दोनों अपने शिरडी-प्रवास से अत्यन्त प्रसन्न थे। श्रीमती खापर्डे श्रद्घालु तथा पूर्ण भक्त थी, इसलिये उनका साई चरणों में अत्यन्त प्रेम था । प्रतिदिन दोपहर को वे स्वयं नैवेद्य लेकर मसजिद को जाती और जब बाबा उसे ग्रहण कर लेते, तभी वे लौटकर आपना भोजन किया करती थी । बाबा उनकी अटल श्रद्घा की झाँकी का दूसरों को भी दर्शन कराना चाहते थे । एक दिन दोपहर को वे साँजा, पूरी, भात, सार, खीर और अन्य भोज्य पदार्थ लेकर मसजिद में आई । और दिनों मे तो भोजन प्रायः घंटों तक बाबा की प्रतीक्षा में पड़ा रहता था, परन्तु उस दिन वे तुरंत ही उठे और भोजन के स्थान पर आकर आसन ग्रहण कर लिया और थाली पर से कपड़ा हटाकर उन्होंने रुचिपूर्वक भोजन करना आरम्भ कर दिया । तब शामा कहने लगे कि यह पक्षपात क्यों । दूसरो की थालियों पर तो आप दृष्टि तक नहीं डालते, उल्टे उन्हें फेंक देते है, परन्तु आज इस भोजन को आप बड़ी उत्सुकता और रुचि से खा रहे है । आज इस बाई का भोजन आपको इतना स्वादिष्ट क्यों लगा । यह विषय तो हम लोगों के लिये एक समस्या बन गया है । तब बाबा ने इस प्रकार समझाया। सचमुच ही इस भोजन में एक विचित्रता है । पूर्व जन्म में यह बाई एक व्यापारी की मोटी गाय थी, जो बहुत अधिक दूध देती थी । पशुयोनी त्यागकर इसने एक माली के कुटुम्ब में जन्म लिया । उस जन्म के उपरान्त फिर यह एक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हई और इसका ब्याह एक व्यापारी से हो गया । दीर्घ काल के पश्चात् इनसे भेंट हुई है। इसलिये इनकी थाली में से प्रेमपूर्वक चार ग्रास तो खा लेने  दो । ऐसा बतलाकर बाबा ने भर पेट भोजन किया और फिर हात मुँह धोकर और तृप्ति की चार-पाँच डकारें लेकर वे अपने आसन पर पुनः आ बिराजे । फिर श्रीमती खापर्डे ने बाबा को नमन किया और उनके पाद-सेवन करने ली । बाबा उनसे वार्तालाप करने लगे और साथ-साथ उनके हाथ भी दबाने लगे । इस प्रकार परस्पर सेवा करते देख शामा मुस्कुराने लगा और बोला कि देखो तो, यह एक अदभुत दृश्य है कि भगवान और भक्त एक दूसरे की सेवा कर रहे है । उनकी सच्ची लगन देखकर बाबा अत्यन्त कोमल तथा मृदु शब्दों मे अपने श्रीमुख से कहने लगे कि अब सदैव 'राजाराम, 'राजाराम' (रामनाम) का जप किया करो और यदि तुमने इसका अभ्यास क्रमबद्ध किया तो तुम्हे अपने जीवन के ध्येय की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी । तुम्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त होकर अत्याधिक लाभ होगा । आध्यात्मिक विषयों से अपरिचित व्यक्तियों के लिये यह घटना साधारणसी प्रतीत होगी, परन्तु शास्त्रीय भाषा में यह शक्तिपात के नाम से विदित है, अर्थात् गुरु द्घारा शिष्य में शक्तिसंचार करना । कितने शक्तिशाली और प्रभावकारी बाबा के वे शब्द थे, जो एक क्षण में ही हृदय-कमल में प्रवेश कर गये और वहाँ अंकुरित हो उठे । यह घटना गुरु-शिष्य सम्बन्ध के आदर्श की द्योतक है । गुरु-शिष्य दोनों एक दूसरे को अभिन्न् जानकर प्रेम और सेवा करनी चाहिये, क्योंकि उन दोनों में कोई भेद नहीं है । वे दोनों अभिन्न और एक ही है, जो कभी पृथक् नहीं हो सकते । शिष्य गुरुदेव के चरणों पर मस्तक रख रहा है, यह तो केवल बाहृ दृश्यमान है । आन्तरिक दृष्टि से दोनों अभिन्न और एक ही है तथा जो उनमें भेद समझता है, वह अभी अपरिपक्व और अपूर्ण ही है । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 6.श्री साईबाबा का संपूर्ण
जीवन और दत्त संप्रदाय नवनाथ
योगी जीवन एक हि हैं।
श्री गणेशाय नमः । श्री साईबाबा के आरती मे भगवान दत्तात्रेय का बार बार उल्लेख आया हैं । हिंदू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था । भगवान दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली । दत्तात्रेय ने अन्य पशुओं के जीवन और उनके कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की । दत्तात्रेयजी कहते हैं कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु मानना है, इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी । ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन सती अनुसूया इनकी माता थीं। श्रीमदभागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहाँ त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है । पुराणों अनुसार इनके तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप है । चित्र में इनके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर, निम और वट वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय की भक्ति से प्राप्त हुआ । श्री साईबाबा को समस्त यौगिक प्रयोग और क्रियाएँ ज्ञात थी । उनमें से केवल दो का ही उल्लेख यहाँ किया जाता है – धौति क्रिया (आतें स्वच्छ करने की क्रिया) - प्रति तीसरे दिन श्री साईबाबा मसजिद से प्रयाप्त दूरी पर, एक वट वृक्ष के नीचे किया करते थे । एक अवसर पर लोगों ने देखा कि उन्होंने अपनी आँतों को उदर के बाहर निकालकर उन्हें चारों ओर से स्वच्छ किया और समीप के वृक्ष पर सूखने के लिये रख दिया। शिरडी में इस घटना की पुष्टि करने वाले लोग अभी भी जीवित हैं। उन्होंने इस सत्य की परीक्षा भी की थी । साधारण धौति क्रिया एक 3” चौडे व 22 ½ फुट लंबे गीले कपड़े के टुकड़े से की जाती है । इस कपड़े को मुँह के द्वारा उदर में उतार लिया जाता हैं तथा इसे लगभग आधा घंटे तक रखे रहते है, ताकि उसका पूरा-पूरा प्रभाव हो जावे। तत्पश्चात् उसे बाहर निकाल लेते निकाल लेते हैं । पर श्री साईबाबा की तो यह धौति क्रिया सर्वथा विचित्र और असाधारण ही थी। खण्डयोग – एक समय श्री साईबाबा ने अपने शरीर के अवयव पृथक-पृथक कर मसजिद के भिन्न-भिन्न स्थानों में बिकेर दिये। अकस्मात् उसी दिन एक महाशय मसजिद में पधारे और अंगों को इस प्रकार यहाँ-वहाँ बिखरा देखकर बहुत ही भयभीत हुए । पहले उनकी इच्छा हुई कि लौटकर ग्राम अधिकारी के पास यह सूचना भिजवा देनी चाहिये कि किसी ने बाबा का खून कर उनके टुकडे-टुकडे कर दिये हैं । परन्तु सूचना देने वाला ही पहले पकड़ा जाता हैं, यह सोचकर वे मौन रहे । दूसरे दिन जब वे मसजिद में गये तो बाबा को पूर्ववत् हष्ट पुषट ओर स्वस्थ देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । उन्हें ऐसा लगा कि पिछले दिन जो दृश्य देखा था, वह कहीं स्वप्न तो नहीं था । बाबा बाल्याकाल से ही यौगिक क्रियायें किया करते थे और उन्हें जो अवस्था प्राप्त हो चुकी थी, उसका सत्य ज्ञान किसी को भी नहीं  था । दत्त संप्रदाय - नवनाथ योगी-सिध्द-अवधूत होते हैं । इनके चार प्रकार होते है । ब्रह्मावधूत, सैवावधूत, वीराधूत, कुलावधूत । यह संन्यासी होते है । जातपात को न मानणे वाले होते है । मौनव्रत रखने वाले होते है । हमेशा धुनी के साथ रहने वाले होते है । हठ-योगि, राजयोगी , त्रिकालज्ञानी होते हैं । इनको प्रत्यक्ष मूर्तीमंत पूर्णावस्था प्राप्त होती हैं । हमेशा ब्रह्मस्वरूपी विलीन होते हैं। जीवन्मुक्त होते है । हमेशा ब्रह्मचिंतन मे मग्न होते हैं । ऐहिक सुख (संसार) से संबंध न रखने वाले होते हैं । धर्म एवं संप्रदाय के बंधन से मुक्त होते हैं । परमपद को पहुंचे हुये होते है । यौगिक प्रयोग , क्रियाएँ ,आसन, प्राणायाम, मुद्रा, समाधि-चतुरंग योग ज्ञात होती हैं । 1886 में मार्गशीर्ष को पूर्णिमा के दिन बाबा कोदमा से अधिक पीड़ा हुई और इस व्याधि से छुटकारा पाने के लिये उन्होंने अपने प्राण ब्रह्मांड में चढ़ाकर समाधि लगाने का विचार किया । अतएव उन्होंने भक्त म्हालसापति से कहा कि तुम मेरे शरीर की तीन दिन तक रक्षा करना और यदि मैं वापस लौट आया तो ठीक ही है, नहीं तो उस स्थान (एक स्थान को इंगित करते हुए) पर मेरी समाधि बना देना और दो ध्वजायें चिन्ह स्वरुप फहरा देना । ऐसा कहकर बाबा रात में लगभग दस बजे पृथ्वी पर लेट गये । उनका श्वासोच्छवास बन्द हो गया और ऐसा दिखाई देने लगा कि जैसे उनके शरीर में प्राण ही न हो । सभी लोग, जिनमें ग्रामवासी भी थे, वहाँ एकत्रित हुए और शरीर परीक्षण के पश्चात शरीर को उनके द्वारा बताये हुए स्थान पर समाधिस्थ कर देने का निश्चय करने लगे । परन्तु भगत म्हालसापति ने उन्हें ऐसा करने से रोका और उनके शरीर को अपनी गोद में रखकर वे तीन दिन तक उसकी रक्षा करते  रहे । तीन दिन व्यतीत होने पर रात को लगभग तीन बजे प्राण लौटने के चिन्ह दिखलाई पड़ने लगे। श्वासोच्छवास पुनः चालू हो गया और उनके अंग-प्रत्यंग हिलने लगे। उन्होंने नेत्र खोल दिये और करवट लेते हुए वे पुनः चेतना में आ    गये । नवनाथ योगी को भी गायब होणा / अदृश्य होणा, प्रगट होणा यह योग कलाए ज्ञात होती थी । श्री दत्तावतारा में चारो संप्रदाय- नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय और समर्थ संप्रदाय की अगाध श्रद्धा है । ऐसे दत्त भक्ति की परंपरा को सैकड़ों वर्षों से कायम रखने वाले दत्त संप्रदाय में हिन्दुओं के ही बराबर मुसलमान भक्त भी बड़ी संख्या में शामिल है । इससे यह साबित होता है कि श्री साईबाबा का संपूर्ण जीवन और दत्त संप्रदाय नवनाथ योगी जीवन एक हि हैं। श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु ।  शुभम भवतु ।
अध्याय 7. धर्मग्रंथ, गुरु बिना   
          पढ़ना है बेकार |
श्री गणेशाय नमः । गुरुकृपा की केवल एक किरण ही भवसागर के भय से सदा के लिये मुक्त कर देती है तथा मोक्ष का पथ सुगम करके दुःख को सुख में परिवर्तित कर देती है । यदि सदगुरु के मोहविनाशक पूजनीय चरणों का सदैव स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे समस्त कष्टों और भवसागर के दुःखों का अन्त होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा हो जायेगा । इसीलिये जो अपने कल्याणार्थ चिन्तित हो, उन्हें साई समर्थ के अलौकिक मधुर लीलामृत का पान करना चाहिये । ऐसा करने से उनकी मति शुद्घ हो जायेगी ।
   एक तहसीलदार (व्ही.एच.ठाकुर) रेवेन्यू विभाग में कार्यरत थे| बहुत पढ़े-लिखे होकर भी उन्हें सत्संग से बहुत लगन थी| इसलिए अपने विभाग के साथ जहां कहीं भी जाते, यदि वहां किसी संत महात्मा के बारे में सुनते तो उनके दर्शन अवश्य करते| एक बार वे अपने ऑफिस के कार्य से जिला बेलगांव के पास बड़गांव गये| कार्य से निपटकर वे उसी गांव में कानडी संत अप्पाजी के दर्शन कर उनकी चरण-वंदना की| उस समय वे महात्मा निश्चलदास रचित 'विचार सागर' ग्रंथ का अर्थ अपने भक्तों के समक्ष कर रहे थे| यह वेदांत से संबंधित ग्रंथ है| कुछ देर बैठने के बाद जब उन्होंने जाने के लिए महात्मा जी से अनुमति मांगी तो उन महात्मा ने उन्हें अपना ग्रंथ देते हुए कहा - "तुम इस ग्रंथ का अध्ययन करो| तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी| इतना ही नहीं, भविष्य में जब तुम उत्तर दिशा की ओर जाओगे, तो तुम्हारी एक महापुरुष से भेंट होगी| वे तुम्हें परमार्थ की राह दिखायेंगे|" ठाकुर साहब ने स्वयं को सौभाग्यशाली समझकर वह ग्रंथ बड़े प्रेम से माथे से लगाकर स्वीकार किया और बड़े आदर के साथ महात्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त कर विदा हुए| कुछ समय बाद ठाकुर का तबादला कल्याण तहसील में उच्च पद पर हो गया, जो मुम्बई के नजदीक है| वहां पर उनकी भेंट साईं बाबा के भक्त नाना साहब चाँदोरकर से हुई| चाँदोरकर से साईं बाबा की लीलाएं सुनकर उनके मन में साईं बाबा के दर्शनों की तीव्र इच्छा हुई| उन्होंने चाँदोरकर से अपनी इच्छा प्रकट कर दी| अगले ही दिन चाँदोरकर शिरडी जाने वाले थे| उन्होंने ठाकुर से भी शिरडी चलने को कहा| इस पर ठाकुर ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा - "नाना साहब ! यह अवसर तो अच्छा है, लेकिन क्या करूं? ठाणे की एक अदालत में पेशी है और मेरा उस मुकदमे के सिलसिले में उपस्थित होना जरूरी है| इसलिए चाहते हुए भी न चल सकूंगा|" चाँदोरकर ने कहा - "आप मेरे साथ चलिये तो सही| बाबा के दर्शन को जाने पर उस दावे की क्या बात है, बाबा सब संभाल लेंगे| ऐसा विश्वास रखो, और चलो मेरे साथ|" लेकिन ठाकुर की समझ में यह बात नहीं आयी| वे बोले - "अदालत के कानून तो आप जानते ही हैं| यदि तारीख निकल गयी तो आगे बहुत चक्कर लगाने पड़ेंगे|" और वे अपने निर्णय पर अड़े रहे| फिर चाँदोरकर अकेले ही चले गये| इधर जब ठाकुर ठाणे की अदालत पहुंचे तो पता चला कि आगे की तारीख मिल गयी है| तब उन्हें इस बात का बड़ा पछतावा हुआ, कि नाना कि बात मान लेता तो अच्छा होता| फिर वे यह सोच शिरडी पहुंचे कि साईं बाबा के दर्शन भी कर लेंगे और नाना साहब भी मिल जायेंगे| जब वे शिरडी गये तो पता चला कि नाना साहब तो वापस लौट चुके थे| इसलिए उनसे भेंट न हो पायी| फिर वे मस्जिद में बाबा के दर्शन करने के लिए गये| बाबा के दर्शन और चरणवंदना कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी| बाबा बोले - "उस कानडी अप्पा का दिया हुआ 'विचारसागर' ग्रंथ पढ़ चुके हो क्या? उसका मार्ग तो भैंसे की पीठ पर चढ़कर घाट पार करना है| लेकिन यहां का मार्ग बहुत संकरीला है| उस पर चलना आसान नहीं है| इस पर चलने के लिए तुम्हें कठोर श्रम करना पड़ेगा| यहां कष्ट-ही-कष्ट हैं|" साईं बाबा के ऐसे वचन सुनकर ठाकुर को बहुत प्रसन्नता हुई| उनके वचन का मतलब वे समझ चुके थे| उन्हें साईं बाबा के वचन सुनकर बड़गांव के कानडी महात्मा जी के वचन स्मरण हो आये| उन्होंने जिस महापुरुष के बारे में कहा था वे साईं बाबा ही हैं|यह बात उन्होंने अपने मन में धारण कर ली| फिर ठाकुर ने बाबा के चरणों में सिर झुकाकर विनती की - "बाबा ! आप मुझ अनाथ पर कृपा करके मुझे अपना लो|" फिर बाबा उसे समझाते हुए बोले - "अप्पा ने जो कहा था, वह सब सत्य है| जब तुम उसके अनुसार आचरण करके साधना करोगे, तभी मनोकामनायें पूरी होंगी| सदगुरू के बिना किताब का ज्ञान व्यर्थ है| फिर गुरु-मार्गदर्शन से ग्रंथ पढ़ना, सुनना और उस पर अमल करना| ये सब बातें फल देती हैं|" इस उपदेश के बाद ठाकुर बाबा के परम भक्त बन गये| नानासाहेब चाँदोरकर एक समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे । साईबाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो । नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ । बाबा – कौन सा श्लोक है वह । नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है। बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो । तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे “तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“ बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है । नाना – जी, महाराज । बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ । नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्घारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सद्घस्तु (ब्रहम्) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश    देंगें । बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता। मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ । अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे । बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है । नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं प्रणिपात का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता । बाबा – परिप्रश्न का क्या अर्थ है । नाना – प्रश्न पूछना । बाबा – प्रश्न का क्या अर्थ है । नाना – वही (प्रश्न पूछना) । बाबा – यदि परिप्रश्न और प्रश्न दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने परिउपसर्ग का प्रयोग क्यों किया क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी । नाना – मुझे तो परिप्रश्न का अन्य अर्थ विदित नहीं है । बाबा – सेवा । किस प्रकार की सेवा से यहाँ आशय है । नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है । बाबा – क्या यह सेवा पर्याप्त है। नाना – और इससे अधिक सेवा का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है । बाबा – दूसरी पंक्ति के उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो। नाना – जी   हाँ । बाबा – कौन सा शब्द । नाना – अज्ञानम् । बाबा – ज्ञानं के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है । नाना - जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है । बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ । यदि अज्ञान शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है। नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें अज्ञान शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा । बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था । क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे । वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप। नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा । बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया । अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने  लगे । 1.ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है। हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये । 2.केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये । 3.मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं   है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है और केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विद्यमान है । इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्घारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है । नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार अज्ञान की शिक्षा देते है । बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है । अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्घैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्घैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्घैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्घैत स्थिति प्राप्त होणे का लक्षण है । द्घैत में रहकर अद्घैत की चर्चा कौन कर सकता    है । जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है । शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है । उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्घितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है। सदगुरु निर्गुण निराकार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है। गीता का अध्याय 5 देखो । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः। जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि मैं जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और अस्सहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ, गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में 'मैं ही ईश्वर हूँ'। सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि 'मैं शरीर हूँ', 'एक जीव हूँ', तथा 'ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है' । यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया । वह अज्ञान कहाँ है और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है । अज्ञान के उदाहरण – 1.मैं एक जीव (प्राणी) हूँ । 2.शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ) 3.ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है । 4.मैं ईश्वर नहीं हूँ । 5.शरीर आत्मा नहीं है, इसका अबोध । 6.इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है । जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है, उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है । इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही अज्ञान का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है । उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है । साई बाबा ने आगे कहा – 1.प्रणिपात का अर्थ है शरणागति । 2.शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) । 3.कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है । सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा । चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विद्यमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 8. गुरु-गुरु में अंतर न करें |
श्री गणेशाय नमः । साई बाबा केवल यही चाहते थे कि सबका भला हो| बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सत्य-मार्ग पर चलने के लिए कहते| अच्छाई करने के लिए सबको प्रेरित करते| जो भी व्यक्ति अच्छाई की राह पर चलता, बाबा उसका हौसला और बढ़ाते|
   एक बार हेमाडपंत साईं बाबा के दर्शन करने शिरडी गये थे| वहां पर उनके मन में यह विचार आया कि उस परम पावन स्थान पर गुरुवार (बृहस्पतिवार) के दिन राम-नाम का अखण्ड स्मरण और कीर्तन करें| दूसरे ही दिन गुरुवार था|अपने निश्चय को याद करके बुधवार की रात वे राम-नाम लेते-लेते सो गये| गुरुवार को सुबह उठते ही उन्होंने राम-नाम लेना शुरू कर दिया| नित्य काम से निवृत होकर मस्जिद में साईं बाबा के दर्शन करने गए| जब वे बूटीवाड़े के पास से गुजर रहे थे तो मस्जिद के आंगन में औरंगाबादकर नाम के भक्त, संत एकनाथ महाराज का रामभक्ति बताने वाला अभंग गा रहे थे| उसका अर्थ इस तरह था - "मैंने गुरु-कृपा का काजल पाया है और सब उसे लगाने से राम के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं देता है| मेरे अंदर और बाहर भी राम हैं| मेरे सपनों में भी राम हैं| इतना ही नहीं, मैं जागते हुए और सोते हुए राम को ही देखता हूं, मैं हर जगह राम को ही देखता हूं| सभी कामनाएं पूरी करने वाला राम कण-कण में भरा है और वह जनार्दन के एकनाथ का अनुभव है|" यह गीत सुनते ही हेमाडपंत सोचने लगे - "बाबा का खेल समझ से बाहर है| मेरे मन की बात जानकर ही उन्होंने औरंगाबादकर से वह अभंग गवाया होगा| नहीं तो हजारों गीत जानते हुए भी उन्होंने यही अभंग क्यों गाया? बाबा सब कुछ करते हैं और हम केवल कठपुतलियाँ हैं - और यही सच है| मैंने जो कहा, जो सोचा है वह साईं माँ को पसंद है|' -यह सोचने हुए उन्हें और भी उम्मीद मिली और यह सब मंत्र बाबा से ही मिला| ऐसा सोच के वह पूरा दिन उन्होंने राम-नाम के साथ बिताया| किसी अन्य गुरु के शिष्य पंत नाम के एक सज्जन कहीं जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठे थे| वे शिरडी नहीं आना चाहते थे, पर विधाता के लिखे को कौन टाल सकता है ! जो मनुष्य सोचता है, वह पूरा कभी नहीं होता| होता वही है जो परमात्मा चाहता है| जिस डिब्बे में वह बैठे थे| अगले स्टेशन पर उसी डिब्बे में कुछ और लोग भी आ गये| इनमें से कुछ उनके मित्र और सम्बंधी भी थे| वे सभी लोग शिरडी जा रहे थे| संत से मिलकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई| सब लोगों ने पंत से शिरडी चलने को कहा| पंत स्वयं दूसरे गुरु के शिष्य थे| वे सोचने लगे, मैं अपने गुरु के होते हुए दूसरे गुरु के दर्शन करने क्यों जाऊं? उन्होंने उन्हें बहुत टालना चाहा लेकिन सबके बार-बार आग्रह करने पर आखिर वे तैयार हो गए| शिरडी पहुंचने पर सब लोग सुबह ग्यारह बजे बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद गये| साईं बाबा को देखकर पंत का मन आनंदित हो उठा, परन्तु तभी पंत बेहोश होकर गिर पड़े| उन्हें बेहोश देख उनके मित्रादि व अन्य उपस्थित भक्त घबरा गये| तब साईं बाबा ने उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे, तो वह तुरंत होश में आकर उठ बैठे| बाबा तो जान चुके थे कि यह किसी अन्य गुरु के शिष्य हैं| तब बाबा बोले - "देखो पंत, व्यक्ति को हर हालत में अपने गुरु पर निष्ठा कायम रखनी चाहिए| सदैव उस पर स्थिर रहे, लेकिन सब संतों में अंतर न करो| सभी एक ही डाल के पंछी हैं| सब में एक ही ईश्वर रहता है|" बाबा के ऐसे वचन सुनकर पंत को अपने गुरु का स्मरण हो आया| गुरु और बाबा का शरीर अलग होने पर ही दोनों में एक ही परमात्मा रहता है, यह जान गये और जीवन भर बाबा की कृपा को नहीं भूले| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 9. मेरे गुरु ने मुझे कोई 
          मंत्र नहीं सिखाया |
श्री गणेशाय नमः । आओ, पहले हम सन्तों के चरणों में प्रणाम करें, जिनकी कृपादृष्टी मात्र से ही समस्त पापसमूह भस्म होकर हमारे आचरण के दोष नष्ट हो जायेंगे । उनसे वार्तालाप करना हमारे लिये शिक्षाप्रद और अति आनन्ददायक है । वे अपने मन में यह मेरा और वह तुम्हारा ऐसा कोई भेद नहीं रखते । इस प्रकार के भेदभाव की कल्पना उनके हृदय में कभी भी उत्पन्न नहीं होती । उनका ऋण इस जन्म में तो क्या, अनेक जन्मों में भी न चुकाया जा सकेगा ।
   जिस समय साईं बाबा काका साहब को साठे के बारे में 'गुरुचरित्र' का पारायण करने के बारे में बता रहे थे| उस समय मस्जिद में बाबा के भक्त गोविन्द रघुनाथ दामोलकर (हेमाडपंत) तथा अष्ठा साहब बाबा की चरण सेवा कर रहे थे| यह सुनकर उनके मन में विचार आया कि 'मैं तो पिछले चालीस वर्षों से गुरुचरित्र का पारायण करता आया हूं, और सात वर्षों से बाबा की सेवा में हूं, परन्तु जो साठे को बाबा से सात दिन में मिल गया, वह मुझे क्यों नहीं मिला? मुझे बाबा का उपदेश कब होगा?' हेमाडपंत के मन में उठ रहे विचारों के बारे में बाबा जान चुके थे| श्री साईबाबा ने उनसे कहा - "तुम शामा के पास जाकर मेरे लिये पंद्रह रुपये दक्षिणा मांग के ले आओ| लेकिन वहां थोड़ी देर बैठकर वार्तालाप करना और बाद में आना|" हेमाडपंत तुरंत उठे और शामा के पास गये| शामा उस समय स्नान क्रिया से निवृत होकर कपड़े पहन रहे थे| उन्होंने हेमाडपंत से कहा कि आप सीधे मस्जिद से आ रहे हैं? आप बैठकर थोड़ा-सा आराम कर लें, तब तक मैं पूजा कर लूं| ऐसा कहकर शामा अंदर कमरे में पूजा करने चले गए| हेमाडपंत की नजर अचानक खिड़की में रखी 'एकनाथी भागवत' ग्रंथ पर पड़ी| सहजभाव से खोलकर देखा तो जो अध्ययन आज सुबह उन्होंने साईं बाबा के दर्शन करने के लिए जल्दी में अधूरा छोड़ा था, वही था| हेमाडपंत बाबा की लीला को देखकर हैरान रह गये| फिर उन्होंने सोचा कि सुबह पढ़ना अधूरा छोड़कर मैं गया था, यह गलती सुधारने के लिए ही बाबा ने मुझे यहां भेजा होगा| फिर वहां पर बैठे-बैठे उन्होंने वह अध्याय पूर्ण किया| जब शामा बाहर आये तो हेमाडपंत ने बाबा का संदेश सुनाया| शामा ने कहा, मेरे पास पंद्रह रुपये नहीं हैं| रुपयों के बदले आप दक्षिणा के रूप में मेरे पंद्रह नमस्कार ले जाइए| हेमाडपंत ने स्वीकार कर लिया| उन्होंने हेमाडपंत को पान का बीड़ा दिया और बोले, आओ कुछ देर बैठकर बाबा की लीलाओं पर चर्चा कर लें| फिर दोनों में वार्तालाप होने लगा| शामा बोले, बाबा की लीलाएं बहुत गूढ़ हैं, जिन्हें कोई समझ नहीं सकता| बाबा लीलाओं से निर्लेप हुए हास्य-विनोद करते रहते हैं| इसे अज्ञानी , बाबा की लीलाओं को क्या जानें? अब देखो तो बाबा ने आप जैसे विद्वान को मुझ अनपढ़ के पास दक्षिणा लेने भेज दिया| बाबा की क्रियाविधि को कोई नहीं समझ सकता| मैं तो बाबा के बारे में केवल इतना ही कह सकता हूं कि जैसी बाबा में भक्त की निष्ठा होती है, उसी अनुसार बाबा उसकी मदद करते हैं| कभी-कभी तो बाबा किसी-किसी भक्त की कड़ी परीक्षा लेने के बाद ही उसे उपदेश देते हैं| उपदेश शब्द सुनते ही हेमाडपंत को गुरुचरित्र पारायण वाली बात का स्मरण हो आया| वह सोचने लगे कि कहीं बाबा ने उनके मन की चंचलता को दूर करने के लिए तो उन्हें यहां नहीं भेजा है| फिर वे शामा से बाबा की लीलाओं को एकग्रता से सुनने लगे - शामा सुनाने लगे - "एक समय संगमनेर से खाशावा देशमुख की माँ श्रीमती राधाबाई, साईं बाबा के दर्शन के लिए शिरडी आयी थीं| वह बहुत वृद्धा थीं| श्री साईबाबा का दर्शन कर लेने पर वह सफर की सारी तकलीफें भूल गयीं| बाबा के प्रति उनकी बहुत निष्ठा थी| उनके मन में बाबा से उपदेश लेने की तीव्र इच्छा थी| उन्होंने अपने मन में यह निश्चय किया कि जब तक बाबा गुरु उपदेश नहीं करते, तब तक वह शिरडी नही छोड़ेंगी और आमरण-अनशन करने का निर्णय किया| वे अपनी जिद्द की पक्की थीं| उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया| तीन दिन बीत गये| भक्तगण चिंतित हो गये| पर वे माननेवाली नहीं थीं| उनकी ऐसी स्थिति देखकर मैं भयभीत हो गया| मैंने मस्जिद में जाकर बाबा से प्रार्थना की - "हे देवा ! देशमुख की माँ आपकी भक्त हैं| आपका गुरु उपदेश पाने के लिए उन्होंने खाना-पीना तक छोड़ दिया है| यदि आपने उसे उपदेश नहीं दिया और दुर्भाग्य से उन्हें कुछ हो गया तो लोग आपकी ही दोषी ठहरायेंगे| आप पर बेवजह इल्जाम लगायेंगे| आप कृपा करके इस स्थिति को टाल दीजिये|" शामा की बात सुनकर पहले तो बाबा मुस्कराए| उन्हें उस बूढ़ी माँ पर दया आ गयी| बाबा ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा - "माँ ! तुम जानबूझकर क्यों अपनी जान से खेल रही हो| शरीर को कष्ट देकर क्यों मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो| मांग के जो कुछ मिलता है, उसी से गुजारा करनेवाला फकीर हूं| तुम मेरी माँ हो और मैं तुम्हारा बेटा| तुम मुझ पर रहम करो| जो कुछ मैं तुमसे कहता हूं, उस पर ध्यान दोगी तो तुम भी सुखी हो जाओगी| मैं तुमसे अपनी कथा कहता हूं| उसे सुनोगी तो तुम्हें भी अपार शांति मिलेगी, सुनो - मेरे श्री गुरु बहुत बड़े सिद्धपुरुष थे| मैं कई वर्षों तक उनकी सेवा करके थक गया, तब भी उन्होंने मेरे कान में कोई मंत्र नहीं फूंका| मैं भी अपनी बात का पक्का था, चाहे कुछ भी हो जाए, यदि मंत्र सीखूंगा तो इन्हीं से, यह मेरी जिद्द थी| पर उनकी तो रीति ही निराली थी| पहले उन्होंने मेरे सर के बाल कटवाये और फिर मुझसे दो पैसे मांगे| मैं समझ गया और मेंने उन्हें दो पैसे दे दिए| वास्तव में वे दो पैसे श्रद्धा और सबूरी (दृढ़ निष्ठा और धैर्य) थे| मैंने उसी पल उन्हें वे दोनों चीजें अर्पण कर दीं| वे बड़े प्रसन्न हुए| उन्होंने मुझ पर कृपा कर दी| फिर मैंने बारह वर्ष तक गुरु की चरणवंदना की| उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया| उनका मुझ पर बड़ा प्रेम था| उन जैसा कोई विरला गुरु ही मिलेगा| मैंने अपने गुरु के साथ बहुत कष्ट उठाये| उनके साथ बहुत घूमा| उन्होंने भी मेरे लिये बहुत कष्ट उठाये| मेरी इच्छा से परवरिश की| हम आपस में बहुत प्यार करते थे|गुरु के बिना मुझे एक पल भी कहीं चैन नहीं मिलता था| मैं भूख-प्यास भूलकर हर पल गुरु का ही ध्यान करता था, वही मेरे लिए सब कुछ थे| मुझे सदैव गुरुसेवा की ही चिंता लगी रहती थी| मेरा मन उनके श्रीचरणों में ही लगा रहता था| मेरे मन का गुरुचरणों में लगना एक पैसे की दक्षिणा हुई| दूसरा पैसा धैर्य था| दीर्घकाल तक मैं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता हुआ गुरु की सेवा करता रहा, कि यही धैर्य एक दिन तुम्हें भी भवसागर से तार देगा| धैर्य धारण करने से मनुष्य के पाप और मोह नष्ट होकर संकट दूर हो जाते हैं और भय नष्ट हो जाता है| धैर्य धारण करने से तुम्हें भी लक्ष्य की प्राप्ति होगी| धैर्य उत्तम गुणों की खान, उत्तम विचारों की जननी है| निष्ठा और धैर्य दोनों सगी बहनें हैं| मेरे गुरु ने मुझसे कभी कुछ नहीं मांगा और बार-बार मेरी रक्षा की| हर मुश्किल से मुझे निकाला और कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ा| वैसे तो मैं सदैव गुरुचरणों में ही रहता था| यदि कभी कहीं चला भी जाता जब भी उनकी कृपादृष्टि मुझ पर लगातार रहती थी| जिस प्रकार एक कछुवी माँ अपने बच्चे का पालन-पोषण प्रेम-दृष्टि से करती है, वैसे ही मेरे गुरु का प्यार था| माँ! मेरे गुरु ने मुझे कोई मंत्र नहीं सिखाया| फिर मैं तुम्हारे कान में कोई मंत्र कैसे फूंक दूं? इसलिए व्यर्थ में उपदेश पाने का प्रयास न करो| अपनी जिद्द छोड़ दो और अपनी जान से मत खेलो| तुम मुझे ही अपने कर्मों और विचारों का लक्ष्य बना लो| सिर्फ मेरा ही ध्यान करो तो तुम्हारा परमार्थ सफल होगा| तुम मेरी ओर अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर अनन्य भाव से देखूंगा| इस मस्जिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा, कि शास्त्र या साधना की जरूरत नहीं है| केवल गुरु में विश्वास करना ही पर्याप्त है| केवल यही विश्वास रखो कि गुरु ही कर्त्ता है, वही मनुष्य धन्य है जो गुरु की महानता को जानता है| जो गुरु को ही सब कुछ समझता है, वही धन्य है| क्योंकि फिर जानने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहता|" बाबा के इन वचनों को सुनकर राधाबाई के मन को बड़ी शांति मिली| आँखें भर आयीं| फिर बाबा के चरण स्पर्श करके उसने अपना अनशन त्याग दिया| यह कथा ध्यानपूर्वक एकाग्रता से श्रवण कर तथा उसके उपयुक्त अर्थ पर विचार कर हेमाडपंत को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका कंठ रुँध गया और वे मुख से एक शब्द भी न बोल सके । उनकी ऐसी स्थति देख शामा ने पूछा कि आप ऐसे स्तब्ध क्यों हो गये । बात क्या है । बाबा की तो इस प्रकार की लीलायें अगणित है, जिनका वर्णन मैं किस मुख से करुँ । ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का द्योतक था । तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले । बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में । सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे । तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये। उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्घारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये  है । बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है । तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था । तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे । बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे । इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये। हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृद्ध महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है । तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है । अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ । कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया । वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है । उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है । अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है । तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्घति भी अद्घितीय है । यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी । आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश) प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी । तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो । यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो । इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रह्म के साथ अभिन्न हो जायेगा। कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर । न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है। छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है । उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है । ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है । बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उच्च स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली । प्रिय पाठको । कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है । आरती समाप्त होने पर प्रसाद वितरण हुआ। बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया । यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरहसे सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे । हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो । तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा । प्यारे पाठको। हेमाडपंत को उस समय मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ । आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये । श्री सदगुरु   साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 10.श्री साईंबाबा की भक्तोंको  
          शिक्षाएं-अमृतोपदेश |
श्री गणेशाय नमः । आत्मचिंतन : अपने आपकी पहचान करो, कि मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है| विनम्रता : जब तक तुममें विनम्रता का वास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के प्रिय शिष्य नहीं बन सकते और जो शिष्य गुरु को प्रिय नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता| क्षमा : दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूले क्षमा करता है| श्रद्धा और सबुरी (धीरज और विश्वास): पूर्णश्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु का पूजन करो समय आने पर मनोकामना भी पूरी होंगी| कर्मचक्र : कर्म देह प्रारम्भ (वर्तमान भाग्य) पिछले कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ेगा, गुरु इन कष्टों को सहकर सहना सिखाता है, गुरु सृष्टि नहीं दृष्टि बदलता है| दया : मेरे भक्तों में दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरों पर दया करने का अर्थ है मुझे प्रेम करना चाहिए, मेरी भक्ति करना| संतोष : ईश्वर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) प्राप्त है, हमें उसी में संतोष रखना चाहिए| सादगी, सच्चाई और सरलता : सदैव सादगी से रहना चाहिए और सच्चाई तथा सरलता को जीवन में पूरी तरह से उतार लेना चाहिए| अनासक्ति : सभी वस्तुएं हमारे उपयोग के लिए हैं, पर उन्हें एकत्रित करके रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है| प्रत्येक जीव में मैं हूँ : प्रत्येक जीव में मैं हूँ, सभी जगह मेरे दर्शन करो| गुरु अर्पण : तुम्हारा प्रत्येक कार्य मुझे अर्पण होता है, तुम किसी दूसरे प्राणी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा व्यवहार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्यवहार जो दूसरों से होता है सीधा मेरे साथ होता है| यदि तुम किसी को गाली देते हो, तो वह मुझे मिलती है, प्रेम करते हो तो वह भी मुझे ही प्राप्त होता है| भक्त : जो भी व्यक्ति पत्नी, संतान और माता-पिता से पूर्णतया विमुख होकर केवल मुझसे प्रेम करता है, वही मेरा सच्चा भक्त है, वह भक्त मुझमे इस प्रकार से लीन हो जाता है, जैसे नदियां समुद्र में मिलकर उसमें लीन हो जाती हैं| एकस्वरुप : भोजन करने से पहले तुमने जिस कुत्ते को देखा, जिसे तुमने रोटी का टुकड़ा दिया, वह मेरा ही रूप है| इसी तरह समस्त जीव-जन्तु इत्यादि सभी मेरे ही रूप हैं| मैं उन्ही का रूप धरकर घूम रहा हूं| इसलिए द्वैत-भाव त्याग के कुत्ते को भोजन कराने की तरह ही मेरी सेवा किया करो| कर्त्तव्य : विधि अनुसार प्रत्येक जीवन अपना एक निश्चित लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भाव से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन निर्विकार नहीं हो सकता यानि वह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी नहीं हो सकता| लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है| दरिद्रता : दरिद्रता (गरीबी) सर्वोच्च संपत्ति है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बादशाह है| फकीर का नाश नहीं होता, लेकीन अमीर का साम्राज्य शीघ्र ही मिट जाता है| भेदभाव : अपने मध्य से भेदभाव रुपी दीवार को सदैव के लिए मिटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसलिए मैं कौन हूं? इस प्रश्न के साथ सदैव आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करो| वैसे जो बिना किसी भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वे सच में बड़े महान होते हैं| मृत्यु : प्राणी सदा से मृत्यु के अधीन रहा है| मृत्यु की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदि तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ईश्वर हो और उससे भिन्न नहीं हो| वास्तव में किसी भी प्राणी की मृत्यू नहीं होती| वह अपने कर्मों के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जीवात्मा भी अपने पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है| ईश्वर : उस महान् सर्वशक्तिमान् का सर्वभूतों में वास है| वह सत्य स्वरुप परमतत्व है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषण एवं विनाश करने वाला एवं कर्मों के फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सत्य साईं का अंश धारण करके इस धरती के प्रत्येक जीव में वास करता है| चाहे वह विषैले बिच्छू हों या जहरीले नाग-समस्त जीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं| ईश्वर का अनुग्रह : तुमको सदैव सत्य का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ करना चाहिए और दिए गए वचनों का सदा निर्वाह करना चाहिए| श्रद्धा और धैर्य सदैव ह्रदय में धारण करो| फिर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा| ईश्वर प्रदत्त उपहार : मनुष्य द्वारा दिया गया उपहार चिरस्थायी नहीं होता और वह सदैव अपूर्ण होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जीवन अपने पास सहेजकर सुरक्षित नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार प्रत्येक प्राणी को देता है वह जीवन भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुमिरन, सेवा, सत्संग की तुलना मनुष्य प्रदत्त किसी उपहार से नहीं हो सकती है| ईश्वर की इच्छा : जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की शरण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता| आत्मसमर्पण : जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित हो चुका है, जो श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदैव याद करता है और जो निरन्तर मेरे इस स्वरूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष प्रदान करना मेरा विशिष्ट गुण है| सार-तत्त्व : केवल ब्रह्म ही सार-तत्त्व है और संसार नश्वर है| इस संसार में वस्तुतः हमारा कोई नहीं, चाहे वह पुत्र हो, पिता हो या पत्नी ही क्यों न हो| भलाई : यदि तुम भलाई के कार्य करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरण करेगी| सौन्दर्य : हमको किसी भी व्यक्ति की सुंदरता अथवा कुरूपता से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके रूप में निहित ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए| दक्षिणा : दक्षिणा (श्रद्धापूर्वक भेंट) देना वैराग्ये में बढोत्तरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भक्ति की वृद्धि होती है| मोक्ष : मोक्ष की आशा में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु-चरणों की सेवा अनिवार्य है| दान : दाता देता है यानी वह भविष्य में अच्छी फसल काटने के लिए बीज बोता है| धन को धर्मार्थ कार्यों का साधन बनाना चाहिए| यदि यह पहले नहीं दिया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतएव पाने के लिए उत्तम मार्ग दान देना है| सेवा : इस धारणा के साथ सेवा करना कि मैं स्वतंत्र हूं, सेवा करूं या न करूं, सेवा नहीं है| शिष्य को यह जानना चाहिए कि उसके शरीर पर उसका नहीं बल्कि उसके 'गुरु' का अधिकार है और इस शरीर का अस्तित्व केवल 'गुरु' की सेवा करने में ही सार्थक है| शोषण : किसी को किसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाहिए| काम करने वाले को उसके काम के बदले शीघ्र और उदारतापूर्वक पारिश्रमिक देना चाहिए| अन्नदान : यह निश्चित समझो कि जो भूखे को भोजन कराता है, वह वास्तव में उस भोजन द्वारा मेरी सेवा किया करता है| इसे अटल सत्य समझो| भोजन : इस मस्जिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, फिर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ बांध लो| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम  भवतु ।
अध्याय 11.श्री साईंबाबा की भक्तोंको  
         शिक्षाएं-अमृतोपदेश |
श्री गणेशाय नमः । बुद्धिमान : जिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान मिल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किया करता| भगवान की दया के अभाव में व्यक्ति अनावश्यक बातें करता है|  झगड़े : यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गालियां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदि तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापूर्वक शब्द बोलो अथवा उस स्थान से हट जाओ, लेकिन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो| वासना : जिसने वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त की है, उसे प्रभु के दर्शन (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता| पाप : मन-वचन-कर्म द्वारा दूसरों के शरीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है| सहिष्णुता : सुख और दुख तो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं| इसलिए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे अविचल रहकर सहन करो| सत्य : तुम्हें सदैव सत्य ही बोलना चाहिए| फिर चाहे तुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा| एकत्व : राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किंचित मात्र भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ मिला और दोनों समुदायों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए| बुद्धिमानी के साथ एक-दूसरे से व्यवहार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा कर पाओगे| अहंकार : कौन किसका शत्रु है? किसी के लिए ऐसा मत कहो, कि वह तुम्हारा शत्रु है? सभी एक हैं और वही हैं| आधार स्तम्भ : चाहे जो हो जाये, अपने आधार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदैव उसके साथ एकाकार रूप में रहकर स्थित रहो| आश्वासन : यदि कोई व्यक्ति सदैव मेरे नाम का उच्चारण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा| यदि वह निष्ठापूर्वक मेरी जीवन गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदैव उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदैव उपस्थित रहूंगा| मन-शक्ति : चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्थित बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्थित रहकर शांतिपूर्वक अपने सामने से गुजरते हुए सभी वस्तुओं के दृश्यों को अविचलित देखते रहो| भक्ति : वेदों के ज्ञान अथवा महान् ज्ञानी (विद्वान) के रूप में प्रसिद्धि अथवा औपचारिकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्व नहीं है, जब तक उसमे भक्ति का योग न हो| भक्त और भक्ति : जो भी कोई प्राणी अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बाद, निष्काम भाव से मेरी शरण में आ जाता है| जिसे मेरी भक्ति बिना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ| भाग्य : जिसे दण्ड निर्धारित है, उसे दण्ड अवश्य मिलेगा| जिसे मरना है, वह मरेगा| जिसे प्रेम मिलना है उसे प्रेम मिलेगा| यह निश्चित जानो| नाम स्मरण : यदि तुम नित्य 'राजाराम-राजाराम'( राम नाम ) रटते रहोगे तो तुम्हें शांति प्राप्त होगी और तुमको लाभ होगा| अतिथि सत्कार : पूर्व ऋणानुबन्ध के बिना कोई भी हमारे संपर्क में नहीं आता| पुराने जन्म के बकाया लेन-देन 'ऋणानुबन्ध' कहलाता है| इसलिए कोई कुत्ता, बिल्ली, सूअर, मक्खियां अथवा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत| गुरु : अपने गुरु के प्रति अडिग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जितने कम गुण हों| आत्मानुभव : हमको स्वंय वस्तुओं का अनुभव करना चाहिए| किसी विषय में दूसरे के पास जाकर उसके विचार या अनुभवों के बारे में जानने की क्या आवश्यकता है? गुरु-कृपा : मां कछुवी नदी के दूसरे किनारे पर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किनारे पर| कछुवी न तो उन बच्चों को दूध पिलाती है और न ही उष्णता प्रदान करती है| पर उसकी दृष्टिमात्र ही उन्हें उष्णता प्रदान करती है| वे छोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करने के अलावा कुछ नहीं करते| कछुवी की दृष्टि उसके बच्चों के लिए अमृत वर्षा है, उनके जीवन का एक मात्र आधार है, वही उनके सुख का भी आधार है| गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी प्रकार के हैं| सहायता : जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण विश्वास करेगा और जब भी वह अपनी मदद के लिए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्वयं ही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी प्रकार यदि कोई तुमसे कुछ मांगता है और वह वस्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्य तुममे है और तुम उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सकते हो तो वह वस्तु उसे दो| मना मत करो| यदि उसे देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापूर्वक इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध करो| ऐसा करना साईं के आदेश पर चलने के समान है| विवेक : संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं - अच्छी और आकर्षक| ये दोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के लिए उसे आकर्षित करती हैं| उसे सोच-विचार कर इन दोनों में से कोई एक वस्तु का चुनाव करना चाहिए| बुद्धिमान व्यक्ति आकर्षक वस्तु की उपेक्षा अच्छी वस्तु का चुनाव करता है, लेकिन मूर्ख व्यक्ति लोभ और आसक्ति के वशीभूत होकर आकर्षक या सुखद वस्तु का चयन कर लेता है और परिणामतः ब्रह्मज्ञान आत्मानुभूति से वंचित हो जाता है| जीवन के उतार-चढ़ाव : लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु-भगवान के हाथों में है, लेकिन लोग कैसे उस भगवान को भूल जाते हैं, जो इस जीवन की अंत तक देखभाल करता है| सांसारिक सम्मान : सांसारिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर भ्रमित मत हो| इष्टदेव के स्वरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे मानस पटल पर सदैव अंकित रहना चाहिए| अपनी समस्त इन्द्रिया वासनाओं और अपने मन को सदैव भगवान की पूजा में निरंतर लगाये रखो| जिज्ञासा प्रश्न : केवल प्रश्न पूछना ही पर्याप्त नहीं है| प्रश्न किसी अनुचित धारणा से या गुरु को फंसाने और उसकी गलतियां पकड़ने के विचार से या केवल निष्किय उत्सुकतावश नहीं पूछे जाने चाहिए| प्रश्न पूछने के मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति अथवा आध्यात्मिक के मार्ग में प्रगति करना होना चाहिए| आत्मानुभूति : मैं एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारणा केवल कोरा भ्रम है और इस धारणा के प्रति प्रतिबद्धता ही सांसारिक बंधनों का मुख्य कारण है| यदि सच में तुम आत्मानुभूति के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारणा और आसक्ति का त्याग कर दो| आत्मीय सुख : यदि कोई तुमसे घृणा और नफरत करता है तो तुम स्वयं को निर्दोष मत समझो| क्योंकि तुम्हारा कोई दोष ही उसकी घृणा और नफरत का कारण बना होगा| अपने अहं की झूठी संतुष्टि के लिए उससे व्यर्थ झगड़ा मोल मत लो, उस व्यक्ति की उपेक्षा करके, अपने उस दोष को दूर करने का प्रयास करो जिससे कारण यह सब घटित हुआ है| यदि तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम आत्मीय सुख का अनुभव कर सकोगे| यही सुख और प्रसन्नता का सच्चा मार्ग है| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 12. सच्चे गुरु कि पहचान |
श्री गणेशाय नमः । धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय गति और क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी । कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रह्मानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते  थे । कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे। यद्यपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे। प्रशान्त महासागर की नाईं सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे । उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है । यह तो सर्व विदित है कि वे बाल-ब्रह्मचारी थे । वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे । उनकी संगति द्वारा हमें जिस अनुपम ज्ञान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है । हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है ।
   बाबा को द्वारिकामाई मस्जिद में आए अभी दूसरा ही दिन था कि अचानक मस्जिद के दूसरे छोर पर शोर मच गया - "काट लिया! काट लिया! काले नाग ने काट लिया|" "क्या हुआ?" साईं बाबा एकदम से चौंककर खड़े हो गए और शोर मचाने वाले से पूछा| "दामोदर को नाग ने काट लिया साईं बाबा!" एक व्यक्ति ने सहारा देकर दामोदर को उठाते हुए कहा| दामोदर की हालत एकदम से खराब होती जा रही थी| उसका सारा शरीर नीला पड़ता जा रहा था, मुंह से झाग आने लगी थी| "मत चढ़...मत चढ़...!" साईं बाबा बोले| "कहां गया नाग?" "इस बिल में घुस गया है|" एक व्यक्ति ने मस्जिद के एक कोने में एक बिल की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा| उस बिल को देखकर साईं बाबा बड़े जोर से हँसकर बोले - "वाह रे लीलाधर! बड़ी विचित्र है तेरी लीला| यह तो नेवले का बिल है| नेवला अभी इस नाग के टुकड़े-टुकड़े करके रख देगा|" सभी व्यक्ति साईं बाबा की ओर हैरानी से देखने लगे| फिर साईं बाबा दामोदर के पास आये और उसके पास बैठकर, उसके पैर पर ऊपर से नीचे की ओर हाथ फेरते हुए कहने लगे - "उतर जा... उतर जा...|" बाबा के ऐसा कहते ही दामोदर के अंगूठे से नीले-नीले रंग की बूंदें तेजी से गिरने लगीं| वहां उपस्थित लोगों को यह समझते देर न लगी कि यह बूंदें उसी नाग के जहर की हैं| यह देखकर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था कि नाग का जहर तो तेजी से ऊपर की ओर चढ़ता जाता है| उन्होंने सांप काटने की अनेक घटनाएं देखी थीं| पर, ऐसा पहली बार देखा था कि जहर शरीर में फैलने की बजाय बूंद-बूंद का जख्म से ही टपकने लगा हो| बाबा दामोदर के डंसे हुए पैर पर हाथ फेरते रहे और जहर बूंद-बूंद करके नीचे की ओर टपकता गया| थोड़ी देर बाद बूंदों का नीला रंग धीरे-धीरे लाली में बदल गया| कुछ देर बाद बाबा ने कहा - "दामोदर के शरीर से अब सारा जहर निकल गया है| अब चिन्ता करने की कोई बात नहीं है| यह अब ठीक है|" फिर उन्होंने दामोदर से पूछा - "अब कैसा लग रहा है, दामोदर?" "अब मेरी तबीयत ठीक है बाबा|" दामोदर ने कहा और साईं बाबा के पैरों से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगा| बोला -"आपने मुझे बचा लिया साईं बाबा! आपकी कृपा से ही आज मेरी जान बच पायी है|" यह घटना सबके लिए महान् आश्चर्य का विषय थी| सभी ने यह चमत्कार अपनी आँखों के सामने होते देखा था| साईं बाबा के होठों पर मुस्कराहट थिरक रही थी| उनके इस चमत्कार की चर्चा सारे गांव में हो रही थी| अब लोगों को विश्वास होने लगा कि साईं बाबा वास्तव में ही कोई अवतारी पुरुष हैं| सभी धर्मों के लोग दूर-दूर से उनके पास आने लगे| दामोदर को सांप के काटने और साईं बाबा द्वारा बिना किसी मंत्र-तंत्र अथवा दवा-दारू के उसके शरीर से जहर का बूंद-बूंद करके टपक जाना, सारे गांव में इसी की ही सब जगह पर चर्चा हो रही थी| गांव के कुछ नवयुवकों ने द्वारिकामाई मस्जिद में आकर साईं बाबा के अपने कंधों पर बैठा लिया और उनकी जय-जयकार करने लगे| सभी छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष साईं बाबा की जय-जयकार के नारे पूरे जोर-शोर से लगा रहे थे| "हम तो साईं बाबा को इसी तरह से सारे गांव में घुमायेंगे|" नयी मस्जिद के मौलवी ने कहा - "मैंने तो पहले ही कह दिया था कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं| यह इंसान नहीं फरिश्ते हैं| यह तो शिरडी का अहोभाग्य है कि जो यह यहां पर आ गए हैं|" "हां, हां, हम साईं बाबा का जुलूस निकालेंगे|" अभी उपस्थित व्यक्ति एक स्वर में बोले| फिर उसके बाद सब जुलूस निकालने की तैयारी करने में लग गये| यह सब देख-सुनकर पंडितजी को बहुत ज्यादा दुःख हुआ| पूरे गांव में केवल वे ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो नये मंदिर के पुजारी के साथ-साथ पुरोहिताई और वैद्य का भी कार्य किया करते थे| यह बात उनकी समझ में जरा-सी भी नहीं आयी कि साईं बाबा के हाथ फेरने से ही जहर कैसे उतर सकता है? इस बात को वह ढोंग मान रहे थे| इसमें उनको साईं बाबा की कुछ चाल नजर आ रही थी| वह गांव के लोगों का इलाज भी किया करते थे| साईं बाबा के प्रति उनके मन में ईर्ष्या पैदा हो गयी थी| साईं बाबा एक चमत्कारी पुरुष हैं, पंडितजी इस बात को मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार न थे| वह ईर्ष्या में भरकर साईं बाबा के विरुद्ध उल्टी-सीधी बातें बोलने लगे| सब जगह केवल साईं बाबा की ही चर्चा थी| पर, पंडितजी की ईर्ष्या का कोई ठिकाना न था| "जरूर कोई महात्मा हैं|" "सिद्धपुरुष हैं|" "देखो न ! कैसे-कैसे चमत्कार करता है !" अब आस-पास के लोग जिन्होंने साईं बाबा के चमत्कार के बारे में सुना, उनके दर्शन करने के लिए आ रहे थे| उधर पंडितजी न नाग के जहर को शरीर से बूंद-बूंद कर टपक जाने की बात सुनी तो आगबबूला हो गये-और गांव के चौपाल पर बैठे लोगों से बोले- "यह गांव ही मूर्खों से भरा पड़ा है|" पंडित ने क्रोध से कांपते हुए कहा - "वह कल का मामूली छोकरा भला सिद्धपुरुष कैसे हो सकता है ? कई-कई जन्म बीत जाते हैं साधना करते हुए, तब कहीं जाकर सिद्धि प्राप्त होती है| नाग का जहर तो संपेरे भी उतार देते हैं| मुझे तो पहले ही दिन पता चल गया था कि वह कोई संपेरा हैं| एक संपेरा का ही ऐसा काम होता है, जिनका कोई दीन-धर्म नहीं होता| वह भला सिद्धपुरुष कैसे हो सकता है?" "आप बिल्कुल ठीक कहते हैं पंडितजी!"-एक व्यक्ति ने कहा - "पन्द्रह-सोलह वर्ष का छोकरा है और गांव वालों ने उसका नाम रख दिया है 'साईं बाबा'| यह साईं बाबा का क्या अर्थ होता है, पंडितजी ! जरा हमें भी समझाइये?" "इसका अर्थ तो तुम उन्हीं लोगों से जाकर पूछो, जिन्होंने उसका यह नाम रखा है|" पंडितजी ने ईर्ष्या में भरकर कहा| फिर रहस्यपूर्ण स्वर में बोले-"जाओ, पुरानी मस्जिद में देखकर आओ, वहां पर क्या हो रहा है?" तभी अचानक झांझ, मदृंग, ढोल और अन्य वाद्यों की आवाज तथा लोगों का कोलाहल सुनकर पंडितजी चौंक गये| बाजों की आवाज के साथ-साथ जय-जयकार के नारे भी सुनायी दे रहे थे| उन्होंने देखा, सामने से एक जुलूस आ रहा था| "पंडितजी! बाहर आइए|साईं बाबा की शोभायात्रा आ रही है|" एक व्यक्ति ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा| पंडितजी उस नजारे को देखकर बड़े हैरान थे| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 13. सच्चे गुरु कि पहचान |
श्री गणेशाय नमः । हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है । परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है । सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायःएक समान ही है । यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है । वे भवसागर के कष्टों को सोखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है । सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है । वे उनसे पृथक नहीं है । श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे। वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी । उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम   था । वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे । उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे।           पाठको । अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें । भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे । उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था । यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी । तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था । अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन सी इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका । अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्घापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ अंशों तक तृप्त हो जायेगी । भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका । इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था। अतः यह सब उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था । 
  पालकी के आगे-आगे कुछ गांववासी झांझ, मंजीरे और ढोल बजाते हुए चल रहे थे| उनके पीछे एक पालकी में साईं बाबा बैठे थे| दामोदर और उसके साथियों ने पालकी अपने कंधों पर उठा रखी थी| उनके साथ गांव के पटेल भी थे और नई मस्जिद के इमाम भी| साथ ही प्रतिष्ठित लोगों की भीड़ भी चल रही थी| इन सबके साथ गांव की बहुत सारी महिलाएं भी थीं| ऐसा लगता था कि जैसे सारा गांव ही उमड़ पड़ा हो| सभी साईं बाबा की जय-जयकार कर रहे थे| साई बाबा का ऐसा स्वागत-सत्कार देखकर पंडितजी के होश उड़ गये, मारे क्रोध के बुरा हाल हो गया| वह गला फाड़कर चिल्लाकर बोले-"सत्यानाश! ये ब्राह्मण के लड़के इस संपेरे के बहकावे में आ गए हैं| यह बहुत बड़ा जादूगर है| नौजवानों को इसने अपने वश में कर रखा है| देख लेना, एक दिन यह सब भी इसी की तरह शैतान बन जायेंगे| हे भगवान! क्या मेरे भाग्य में यह दिन भी देखना बाकी था?" जैसे-जैसे शोभायात्रा आगे बढ़ती जा रही थी और उसमें शामिल होने वाले लोगों की भीड़ भी बढ़ती जा रही रही, साईं बाबा कि पालकी के आगे-आगे नवयुवक नाचते, गाते और जय-जयकार से वातावरण को गूंजा रहे थे| अपने-अपने घरों के दरवाजों पर खड़ी स्त्रियां फूल बरसाकर शोभायात्रा का स्वागत कर रही थीं| पंडितजी से साईं बाबा का यह स्वागत देखा न गया| वह गुस्से में पैर पटकते हुए घर के अंदर चले गए और दरवाजा बंद करके, कमरे मैं जाकर पलंग पर लेट गए और मन-ही-मन साईं बाबा को कोसने लगे| कैसा जमाना आ गया है, इस कल के छोकरे ने तो सारे गांव को बिगाड़कर रख दिया है| पंडितजी को साईं बाबा अपना सबसे बड़ा दुश्मन दिखाई दे रहे थे| जुलूस गांवभर में घूमता रहा और हर जबान पर साईं बाबा की चर्चा होती रही| शोभायात्रा घूमकर वापस लौट आयी|साईं बाबा के पास कुछ ही व्यक्ति रह गए| वह चुपचाप आँखें बंद किये बैठे थे| "बाबा, जब आप पहले-पहल गांव में आए थे और लोगों ने आपसे पूछा था कि आप कौन हैं, तो आपने कहा था, मैं साईं बाबा हूं| साईं बाबा का क्या अर्थ होता है?" दामोलकर ने पूछा| उसके इस प्रश्न पर साईं बाबा मुस्करा दिए| "देखो, दो अक्षर का शब्द है-सा और ईं| सा का अर्थ है देवी और ईं का अर्थ होता है मां| बाबा का अर्थ होता है पिता| इस प्रकार साईं बाबा का अर्थ हुआ-देवी,माता और पिता|" "जन्म देने वाले माता-पिता के प्रेम में स्वार्थ की भावना निहित होती है| जबकि देवी माता-पिता के स्नेह में जरा-सा भी स्वार्थ नहीं होता है| वह तुम्हारा मार्गदर्शन करते हैं और तुम्हें प्रेरणा देते हैं| आत्मदर्शन, आत्मज्ञान की सीधी और सच्ची राह दिखाते हैं|" साईं बाबा ने समझाते हुए कहा - "वैसे साईं बाबा को प्रयोग परमपिता परमात्मा, ईश्वर, अल्लाताला और मालिक के लिए भी किया जाता है|" "आप वास्तव में ही साईं बाबा हैं|" सभी उपस्थित लोगों ने एक स्वर में कहा - "आपने हम सभी को सही रास्ता दिखाया है| सबको आपने ईश्वर की भक्ति के मार्ग पर लगाया है|" "यह मनुष्य शरीर न जाने कितने पिछले जन्मों के पुण्य कर्मों को करने के पश्चात् प्राप्त होता है| इस संसार में जितने भी शरीरधारी हैं, उन सबमें केवल मनुष्य ही सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी है| वह इस जन्म में और भी अधिक पुण्य कर्म कर सकता है| उसके पास बुद्धि है, ज्ञान है और इसके बावजूद भी वह मानव शरीर पाकर मोह-माया और वासना के दलदल में फंस जाता है| इससे छुटकारा पाना असंभव हो जाता है| उसका मन रात-दिन वासना और स्वार्थ में लिप्त रहता है| धन-सम्पत्ति पाने के लिए वह कैसे-कैसे कार्य नहीं करता है| मनुष्य को इस दलदल से यदि कोई मुक्ति दिला सकता है, तो वह है गुरु... केवल सदगुरू| लेकिन आज के समय में सच्चा गुरु कहा मिलता है| सच्चे इंसान ही बड़ी मुश्किल से मिलते हैं| फिर सच्चे गुरु का मिलना तो और भी अधिक कठिन है|" "सच्चे गुरु कि पहचान क्या है साईं बाबा?" एक व्यक्ति ने पूछा| "सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को अच्छाई-बुराई का भेद बता सके| उचित-अनुचित का अंतर बता सके| आत्मप्रकाश, आत्मज्ञान दे सके| जिसके मन में रत्तीभर भी स्वार्थ की भावना न हो, जो शिष्य को अपना ही अंश मानता हो| वही सच्चा सदगुरू है|" साईं बाबा ने बताया और फिर अचानक उन्हें जैसे कुछ याद आया, तो वह बोले - " आज तात्या नहीं आया क्या?" "बाबा, मैं आपको बताना ही भूल गया| तात्या को आज बहुत तेज बुखार आया है|" "तो आओ चलो, तात्या को देख आयें|" साईं बाबा ने अपने आसन से उठते हुए कहा| साथ ही अपनी धूनी में से चुटकी भभूति अपने सिर के दुपट्टे में बांधकर चल पड़े| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 14. डॉक्टर द्वारा     
          साईं बाबा की पूजा |
श्री गणेशाय नमः । जन-साधारण का ऐसा विश्वास है कि समुद्र में स्नान कर लेने से ही समस्त तीर्थों तथा पवित्र नदियों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है । ठीक इसी प्रकार सदगुरु के चरणों का आश्रय लेने मात्र से तीनों शक्तियों (ब्रह्म , विष्णु , और महेश) और परब्रह्म को नमन करने का श्रेय सहज ही प्राप्त हो जाता है । श्री सच्चिदानंद साई महाराज की जय हो ! वे तो भक्तों के लिये कामकल्पतरु, दया के सागर और आत्मानुभूति देने वाले है । हे   साई ! तुम अपनी कथाओं के श्रवण में मेरी श्रद्घा जागृत कर दो। घनघोर वर्षा ऋतु में जिस प्रकार चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र की केवल एक बूँद का पान कर प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार अपनी कथाओं के सारसिन्धु से प्रगटित एक जल कण का सहस्त्रांश दे दो, जिससे पाठकों और श्रोताओं के हृदय तृप्त होकर प्रसन्नता से भरपूर हो    जाये । शरीर से स्वेद प्रवाहित होने लगे, आँसुओं से नेत्र परिपूर्ण हो जाये, प्राण स्थिरता पाकर चित्त एकाग्र हो जाये और पल-पल पर रोमांच हो उठे, ऐसा सात्विक भाव सभी में जागृत कर दो। पारस्परिक बैमनस्य तथा वर्ग-अपवर्ग का भेद-भाव नष्ट कर दो, जिससे वे तुम्हारी भक्ति में सिसके, बिलखें और कम्पित हो उठें। यदि ये सब भाव उत्पन्न होने लगे तो इसे गुरु-कृपा के लक्षण जानो । इन भावों को अन्तःकरण में उदित देखकर गुरु अत्यन्त प्रसन्न होकर तुम्हें आत्मानुभूति की ओर अग्रेसर करेंगे । माया से मुक्त होने का एकमात्र सहज उपाय अनन्य भाव से केवल श्री साईबाबा की शरण जाना ही है । वेद –वेदान्त भी मायारुपी सागर से पार नहीं उतार सकते । यह कार्य तो केवल सदगुरु द्घारा ही संभव है । समस्त प्राणियों और भूतों में ईश्वर-दर्शन करने के योग्य बनाने की क्षमता केवल उन्हीं में है ।
   तात्या साहब नूलकर अपने डॉक्टर मित्र के साथ साईं बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आये थे| मस्जिद में पहुंचकर उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और कुछ देर तक वहीं पर बैठे रहे| कुछ देर बाद बाबा ने उन्हें दादा भट्ट केलकर के पास भेज दिया| तब वह केलकर के घर गये| केलकर ने उनका उत्तम ढंग से स्वागत किया और उनके रहने की भी व्यवस्था की| कुछ देर बाद जब केलकर बाबा का पूजन करने के लिए चलने लगे तो डॉक्टर भी उनके साथ हो लिये| मस्जिद पहुंचकर पहले केलकर ने बाबा का पूजन किया, फिर डॉक्टर ने बाबा का पूजन किया और पूजन करते हुए पूजा की थाली में से चंदन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुंड आकार का तिलक लगा दिया| पर, बाबा ने कुछ भी नहीं कहा| बाबा ने बड़े शांत भाव से तिलक लगवा लिया| वहां उपस्थित भक्तों के मन कांप उठे, कि अब बाबा गुस्से में आयेंगे| क्योंकि बाबा किसी को गंध (चंदन आदि) लगाने नहीं देते थे| यदि किसी को लगाना होता तो वह बाबा के चरणों में लगाता था| केवल म्हालसापति ही बाबा के गले पर चंदन लगाते थे| मस्तक पर तिलक लगाने का साहस आज तक किसी ने नहीं किया था| डॉक्टर इस बात को नहीं जानते थे| पर, सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जब डॉक्टर ने बाबा के मस्तक पर त्रिपुंड आकार का तिलक लगाया तो बाबा कुछ भी नहीं बोले और न बाबा को गुस्सा ही आया, न बाबा ने मना ही किया| उस समय तो केलकर जी चुप रहे, लेकिन जब शाम को बाबा के दर्शनार्थ मस्जिद आये तो उन्होंने बाबा से इसका कारण पूछा, तो बाबा बोले कि - "डॉक्टर पंडित ने मुझे जो तिलक लगाया था, वह मुझे श्री साईं बाबा समझकर नहीं लगाया, बल्कि अपने गुरु रघुनाथ महाराज घोपेश्वरकर (जो काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध है) समझकर लगाया था| उस समय उन्हें मुझमें अपने गुरु के दर्शन हो रहे थे, जिन्हें वे चंदन का तिलक लगाया करते थे| उस समय उन्होंने मुझे अपने गुरु के रूप में तिलक लगाया था| उस समय उनके मन में वही श्रद्धा और प्रेमभाव था जो अपने गुरु के लिए था| उनके उस श्रद्धा और प्रेमभाव के आगे में विवश था| तब मैं भला उनको तिलक करने से कैसे रोक सकता था|"साईं बाबा अपने भक्तों की इच्छा या भावना के अनुसार ही पूजा करवाते थे| या फिर किसी को स्पष्ट मना भी कर देते थे| तब किसी में इतना साहस नहीं होता था कि वह बाबा से इसका कारण पूछ सके| क्योंकि बाबा अपने भक्त की भावना को पहले ही जान जाते थे| ब्रह्मविद्या (अध्यात्म) का जो भक्त अध्ययन करते, उन्हें बाबा सदैव प्रोत्साहित करते थे । इसका एक उदाहरण है कि एक समय बापूसाहेब जोग का एक पार्सल आया, जिसमें श्री. लोकमान्य तिलक कृत गीता रहस्य (गीता-भाष्य) की एक प्रति थी, जिसे काँख में दबाये हुये वे मसजिद में आये । जब वे चरण-वन्दना के लिये झुके तो वह पार्सल बाबा के श्री-चरणों पर गिर पड़ा । तब बाबा उनसे पूछने लगे कि इसमें क्या है । श्री. बापूसाहेब जोग ने तत्काल ही पार्सल से वह पुस्तक निकालकर बाबा के कर—कमलों में रख दी । बाबा ने थोड़ी देर उसके कुछ पृष्ठ देखकर जेब से एक रुपया निकाला और उसे पुस्तक पर रखकर बापूसाहेब जोग को लौटा दिया और कहने लगे कि इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करते रहो, इससे तुम्हारा कल्याण   होगा । श्री सदगुरु साईअर्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 15. मुले शास्त्री को    
          साईं बाबा में गुरु-दर्शन ।
श्री गणेशाय नमः । जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता है, वह सदैव मेरा दर्शन पाता है । उसके लिये मेरे बिना सारा संसार ही सूना है । वह केवल मेरा ही लीलागान करता है । वह सतत मेरा ही ध्यान करता है और सदैव मेरा ही नाम जपता है । जो पूर्ण रुप से मेरी शरण में आ जाता है और सदा मेरा ही स्मरण करता है, अपने ऊपर उसका यह ऋण मैं उसे मुक्ति (ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश) प्रदान करके चुका चुका दूँगा । जो मेरा ही चिन्तन करता है और मेरा प्रेम ही जिसकी भूख-प्यास है और जो पहले मुझे अर्पित किये बिना कुछ भी नहीं खाता, मैं उसके अधीन हूँ । जो इस प्रकार मेरी शरण में आता है, वह मुझसे मिलकर उसकी तरह एकाकार हो जाता है, जिस तरह नदियाँ समुद्र से मिलकर तदाकार हो जाती है । अतएव महत्ता और अहंकार का सर्वथा परित्याग करके तुम्हें मेरे प्रति, जो तुम्हारे हृदय में आसीन है, पूर्ण रुप से समर्पित हो जाना चाहिये । नासिक के रहनेवाले मुले शास्त्री विद्वान थे| साथ में ज्योतिष, वेद, आध्यात्म के भी अच्छे जानकर थे|
   एक बार वे नागपुर के प्रसिद्ध करोड़पति श्री बापू साहब बूटी से मिलने के लिए शिरडी आये| मिलने के बाद जब बूटी मस्जिद की ओर जाने लगे तो सहज भाव से मुले शास्त्री भी उनके साथ चल दिये| जब वे दोनों मस्जिद पहुंचे तो बाबा भक्तों को आम खिला रहे थे| उसके बाद उन्होंने केलों को खाने के लिए दिन शुरू किया, परन्तु केले बांटने का उनका तरीका एकदम अनोखा था| बाबा केले की गिरी निकालकर भक्तों को देते और छिलके अपने पास रख लेते थे| यह देखकर मुले शास्त्री आश्चर्य में पड़ गये| चूंकि मुले शास्त्री हस्तरेखा के भी ज्ञाता थे, उनकी बाबा के हाथों की लकीरें देखणे की इच्छा हुई| आगे बढ़कर इसके लिए उन्होंने बाबा से प्रार्थना की| पर साईं बाबा ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर उन्हें खाने के लिए केले पकड़ा दिए| मुले शास्त्री ने बाबा से दो-तीन बार विनती की, पर बाबा ने उसकी बात न मानी| आखिर हारकर वे अपने ठहरने की जगह पर लौट आये| बाबा जब दोपहर को लेंडीबाग से मस्जिद लौटे तो भक्त आरती की तैयारी में जुटे हुए थे| बाजों की आवाज सुनकर बापू साहब जाने के लिए उठे और मुले जी से चलने के लिए कहा| लेकिन ब्राह्मण होने के कारण उन्होंने मस्जिद जाना उचित न समझा और टालने हेतु बोले, शाम को चलूंगा| बापू साहब अकेले ही मस्जिद बाबा की आरती में चले गए| इधर आरती सम्पन्न होने के बाद बाबा बूटी से बोले - "जाओ और उस नए ब्राह्मण से कुछ दक्षिणा लाओ|" बूटी ने आकर मुले जी से दक्षिणा मांगी तो वह हैरान-से रह गये, कि मैं तो अग्निहोत्री ब्राह्मण हूं| क्या मुझे बाबा को दक्षिणा देनी चाहिए ? ऐसा विचार उनके मन में आया| फिर बाबा जैसे पहुंचे हुए संत ने मुझसे दक्षिणी मांगी है और बूटी जैसे करोड़पति दक्षिणा लेने के लिये आये हैं तो कैसे मना किया जा सकता है ? ऐसा विचार करके मस्जिद जाने के लिए चल पड़े| पर मस्जिद पहुंचते ही उनका ब्राह्मण होने का अहंकार फिर जग उठा और वह मस्जिद से कुछ दूर खड़े होकर वहीं से ही बाबा पर पुष्प अर्पण करने लगे| लेकिन उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि बाबा के आसन पर साईं बाबा नहीं, बल्कि गेरुये वस्त्र पहने उनके गुरु कैलाशवासी घोलप स्वामी विराजमान हैं| उन्हें अपनी आँखों पर शक-सा हो गया| कहीं वह कोई स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं, ऐसा सोचकर खुद को चिकोटी काटकर देखा| उनकी समझ में नहीं आया कि उनके गुरु यहां मस्जिद में कैसे आ गया ? फिर वे सब कुछ भूलकर मस्जिद की ओर बढ़े और गुरु के चरणों में शीश झुकाकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे| अन्य भक्त बाबा की आरती गा रहे थे| लोगों की नजरें तो साईं बाबा को देख रही थीं, पर मुले जो की नजर अपने गुरु घोलपनाथ को देख रही थी| वे जात-पांत का अहंकार त्यागकर गुरु-चरणों में गिर पड़े और आँखें बंद कर लीं| यह सब दृश्य देखकर लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि दूर से फूल फेंकने वाला ब्राह्मण अब बाबा के चरणों पर गिर पड़ा है| लोग बाबा की जय-जयकार कर रहे थे| मुले घोलपनाथ की जय-जय कर रहे थे| जब उन्होंने आँखें खोलीं तो सामने साईं बाबा खड़े दक्षिणा मांग रहे थे| बाबा का सच्चिदानंद स्वरूप देखकर मुले अपनी सुधबुध खो बैठे, उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी| फिर उन्होंने बाबा को नमस्कार करके दक्षिणा भेंट की और बोले, बाबा आज मुझे मेरे गुरु के दर्शन होने से मेरे सारे संशय दूर हो गए - और वे बाबा के परम भक्त बन गए| बाबा की यह विचित्र लीला देखकर सभी भक्त और स्वयं मुले शास्त्री भी दंग रह गये| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम    भवतु ।
अध्याय 16. साईंबाबा ने डॉक्टर पर  
           अपनी कृपादृष्टि की |
श्री गणेशाय नमः । श्री साई अनंत है । वे एक चींटी से लेकर ब्रम्हांड पर्यन्त सर्व भूतों में व्याप्त है । वेद और आत्मविज्ञान में पूर्ण पारंगत होने के कारण वे सदगुरु कहलाने के सर्वथा योग्य है । चाहे कोई कितना ही विद्घान क्यों न हो, परन्तु यदि वह अपने शिष्य की जागृति कर उसे आत्मस्वरुप का दर्शन न करा सके तो उसे सदगुरु के नाम से कदापि सम्बोधित नहीं किया जा सकता । साधारणतः पिता केवल इस नश्वर शरीर का ही जन्मदाता है, परन्तु सदगुरु तो जन्म और मृत्यु दोनों से ही मुक्ति करा देने वाले है । अतः वे अन्य लोगों से अधिक दयावन्त है । श्री साईबाबा हमेशा कहा करते थे कि मेरा भक्त चाहे एक हजार कोस की दूरी पर ही क्यों न हो, वह शिरडी को ऐसा खिंचता चला आता है, जैसे धागे से बँधी हुई चिडियाँ खिंच कर स्वयं ही आ जाती है । भक्त तीन प्रकार के है 1.उत्तम 2.मध्यम और 3.साधारण प्रथम श्रेणी के भक्त वे है, जो अपने गुरु की इच्छा पहले से ही जानकर अपना कर्तव्य मान कर सेवा करते है । द्घितीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा मिलते ही उसका तुरन्त पालन करते   है । तृतीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा सदैव टालते हुए पग-पग पर त्रुटि किया करते है । भक्तगण यदि अपनी जागृत बुद्घि और धैर्य धारण कर दृढ़ विश्वास स्थिर करें तो निःसन्देह उनका आध्यात्मिक ध्येय उनसे अधिक दूर नहीं है । श्वासोच्वास का नियंत्रण, हठ योग या अन्य कठिन साधनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । जब शिष्य में उपयुक्त गुणों का विकास हो जाता है और जब अग्रिम उपदेशों के लिये भूमिका तैयार हो जाती है, तभी गुरु स्वयं प्रगट होकर उसे पूर्णता की ओर ले जाते है ।
   एक बार एक तहसीलदार साईं बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आये थे| उनके साथ एक डॉक्टर जो उनके मित्र थे, वे भी आये थे| डॉक्टर रामभक्त और जाति से ब्राह्मण थे| वे राम के अतिरिक्त और किसी को न मानते और पूजते थे| वे अपने तहसीलदार दोस्त के साथ इस शर्त पर शिरडी आये थे कि वे न तो बाबा के चरण छुएंगे और न ही उनके आगे सिर झुकायेंगे, न ही वे उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें, क्योंकि बाबा यवन (मुसलमान) हैं और वे श्रीराम के अलावा किसी के आगे सिर नहीं झुकाते| शिरडी पहुंचकर जब दोनों साईं बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद गये, तो तहसीलदार से पहले उनके डॉक्टर मित्र आगे गये और बाबा के चरणों में गिरकर वंदना करने लगे| यह देखकर तहसीलदार को बड़ा आश्चर्य हुआ| अन्य सब उपस्थित लोग भी अचरज में डूब गये| कुछ देर बाद जब उन्होंने डॉक्टर से इस बारे में पूछा कि आपने अपना इरादा कैसे बदल लिया ? तब डॉक्टर ने उन्हें बताया कि बाबा के स्थान पर उन्हें उनके इष्ट श्रीराम जी खड़े दिखाई दिये और उनकी मोहिनी सूरत देखकर मैं तुरंत उनके चरणों में गिर पड़ा| जब वह ऐसा कह रहे थे तो उस समय साईं बाबा खड़े मुस्करा रहे थे| साईं बाबा को खड़े देख डॉक्टर को बहुत आश्चर्य हुआ कि कहीं वह कोई स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं ? उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और वे बोले कि साईं बाबा को मुसलमान कहना मेरी बहुत बड़ी भूल थी| बाबा तो पूर्ण योगावतार हैं| अगले दिन से उन्होंने उपवास करना शुरू कर दिया और प्रण किया कि जब तक बाबा स्वयं मस्जिद बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मस्जिद नहीं जाऊंगा| उन्हें प्रण किए तीन दिन बीत गए| चौथे दिन उनका खान देश में रहनेवाला मित्र आया| मित्र से कई वर्षों के बाद मिलने पर वह बहुत खुश हुए| अपने मित्र के साथ डॉक्टर मस्जिद गए| जब डॉक्टर बाबा की चरण वंदना करने के लिए झुके, तो बाबा ने कहा - "तुम तो मस्जिद नहीं आने वाले थे, फिर आज कैसे आये ?" बाबा के वचनों को सुनकर डॉक्टर को अपना प्रण याद आया| उनका हृदय द्रवित हो उठा और आँखों में आँसू भर आये| उसी रात को साईं बाबा ने डॉक्टर पर अपनी कृपादृष्टि की तो उन्हें सोते हुए ही परमानंद की अनुभूति हुई और वे 15 दिनों तक उसी आनंद में डूबे रहे| उसके बाद वे साईं बाबा की भक्ति के रंग में रंग गये|'मैं कौन हुं'। इस 'मैं' को ढ़ूँढने के लिये अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे नाम और आकार से परे 'मैं' तुम्हारे अन्तःकरण और समस्त प्राणियों में चैतन्यघन स्वरुप में विद्यमान हूँ और यहीं 'मैं' का स्वरुप है । ऐसा समझकर तुम अपने तथा समस्त प्राणियों में मेरा ही दर्शन करो । यदि तुम इसका नित्य प्रति अभ्यास करोगे तो तुम्हें मेरी सर्वव्यापकता का अनुभव शीघ्र हो जायेगा और मेरे साथ अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 17. सब कुछ गुरु को  
          अर्पण करता चल |
श्री गणेशाय नमः । समस्त देवताओं, सन्तों और भक्तों का आदर करना चाहिये । बाबा सदैव कहा करते थे कि जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, वह मेरे हृदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुँचाता है। इसके विपरीत जो स्वयं कष्ट सहन करता है, वह मुझे अधिक प्रिय    है । बाबा समस्त प्राणीयो में विद्यमान है और उनकी हर प्रकार से रक्षा करते है । समस्त जीवों से प्रेम करो, यही उनकी आंतरिक इच्छा है। इस प्रकार का विशुद्घ अमृतमय स्त्रोत उनके श्री मुख से सदैव झरता रहता था । अतः जो प्रेमपूर्वक बाबा का लीलागान करेंगे या उन्हें भक्तिपूर्वक श्रवण करेंगे, उन्हें साई से अवश्य अभिन्नता प्राप्त होगी। 
  साईं बाबा कभी-कभी अपने भक्तों के साथ हँसी-मजाक भी किया करते थे, परन्तु उनकी इस बात से न केवल भक्तों का मनोरंजन ही होता था, बल्कि वह भावपूर्ण और शिक्षाप्रद भी होता था| एक ऐसी ही भावपूर्ण, शिक्षाप्रद व मनोरंजक कथा है - शिरडी गांव में प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक बाजार लगा करता था| उस बाजार में न केवल शिरडी बल्कि आस-पास के गांवों के लोग भी खरीददारी करने आते थे| उस दिन मस्जिद में और दिनों की तुलना में अधिक लोग दर्शन करने आया करते थे| ऐसे ही एक रविवार की बात है - हेमाडपंत मस्जिद में साईं बाबा के चरण दबा रहे थे| शामा बाबा के बायीं ओर थे| वामनराव दायीं ओर बैठे थे| कुछ देर बाद काका साहब और बूटी साहब भी वहां आ गये| उसी समय शामा ने हेमाडपंत से कहा - "अण्णा साहब ! लगता है आपकी बांह में यहां कुछ चिपका हुआ है, जरा देखो तो सही|" इस बात को सुन हेमाडपंत ने जब देखने के लिए अपनी बांह को सीधा किया तो उसमें से 20-25 चने निकलकर गिर गये| यह देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ| वहां उपस्थित लोगों ने यह देखकर कई तरह के अनुमान लगाए| पर, किसी की समझ में कुछ भी नहीं आया, कि ये चने के दाने उनकी बांह में कैसे आए और अब तक कैसे चिपके रहे? इस रहस्य को जानने के लिए सभी उत्सुक थे| तभी बाबा ने विनोदपूर्ण लहजे में कहा - "इस अण्णासाहब को अकेले ही खाने की बुरी आदत है| आज रविवार का बाजार लगा है, ये वहीं से चने चबाते हुए आये हैं| मैं इनकी आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं और ये चने इस बात का सबूत हैं|" हेमाडपंत ने कहा - "बाबा ! यह आप क्या कह रहे हैं? मैं दूसरों को बांटे बिना कभी कुछ नहीं खाता हूं| आज तो मैं शिरडी के बाजार भी नहीं गया हूं, फिर चने खरीदने और खाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता| भोजन करते समय जो लोग मेरे पास होते हैं, पहले मैं उनको उनका हिस्सा देता हूं| फिर मैं भोजन खाता हूं|" तब बाबा ने कहा - "अण्णा, चीजें बांटकर खाने की तेरी आदत को मैं जानता हूं| लेकिन जब तेरे पास कोई नहीं होता, तब तो तू अकेला ही खाता है| लेकिन इस बात का सदैव ध्यान रख, कि मैं हर क्षण तेरे साथ होता हूं| फिर तू मुझे अर्पण करके क्यों नहीं खाता?" बाबा के इन वचनों को सुनकर हेमाडपंत का दिल भर आया| बाबा हर क्षण अपने पास होते हैं, इस बात को उन्होंने कभी समझा ही नहीं और उन्हें कुछ अर्पण भी नहीं किया| यह सब सोचकर वे चुप हो गये कि मजाक ही मजाक में बाबा ने मुझे कितनी बड़ी शिक्षा दी है| उन्होंने बाबा के श्रीचरणों पर अपना मस्तक रख दिया| यदि इन शब्दों पर ध्यान दिया जाये तो इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति परमात्मा को अर्पण किये बिना अकेला ही खाता है, वह दोषी होता है| यह बात केवल भोजन पर ही नहीं, बल्कि देखना, सुनना, सूंघना आदि सभी कार्यों पर समान भाव से लागू होती है| खाना-पीना, सोना-जागना तथा कोई भी कर्म किये बिना जीवन असंभव है| यदि ये सभी कर्म सदगुरू या परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिये जायें तो व्यक्ति की इनकी आसक्ति नहीं रहती| वह व्यक्ति कर्म-बंधन में नहीं पड़ता है| उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और गुरु-चरणों की सेवा करने से आत्म-साक्षात्कार होता है| जो गुरु और परमात्मा दोनों एक हैं यानी उनमें कोई भेद नहीं है, ऐसा मानकर गुरु-सेवा करता है, वह भवसागर से पार हो जाता है| श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
अध्याय 18. "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" अर्थात श्री साईबाबा को अपना गुरु बनाने कि दीक्षा विधी और फलश्रुती ।
श्री गणेशाय नमः । किसी ने हेमाडपंत से प्रश्न किया कि साईबाबा गुरु थे या सदगुरु । इसके उत्तर में हेमाडपंत सदगुरु के लक्षणों का निम्नप्रकार वर्णन करते है । सदगुरु के लक्षण जो वेद और वेदान्त तथा छहों शास्त्रों की शिक्षा प्रदान करके ब्रह्मविषयक मधुर व्याख्यान देने में पारंगत हो तथा जो अपने श्वासोच्छवास क्रियाओं पर नियंत्रण कर सहज ही मुद्रायें लगाकर अपने शिष्यों को मंत्रोपदेश दे , निश्चित अवधि में यथोचित संख्या का जप करने का आदेश दे और केवल अपने वाकचातुर्य से ही उन्हें जीवन के अंतिम ध्येय का दर्शन कराता हो तथा जिसे स्वयं आत्मसाक्षात्कार न हुआ हो, वह सदगुरु नहीं वरन् जो अपने आचरणों से लौकिक व पारलौकिक सुखों से विरक्ति की भावना का निर्माण कर हमें आत्मानुभूति का रसास्वादन करा दे तथा जो अपने शिष्यों को क्रियात्मक और प्रत्यक्ष ज्ञान (आत्मानुभूति-साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश) करा दे, उसे ही सदगुरु कहते है । जो स्वयं ही आत्मसाक्षात्कार से वंचित है, वे भला अपने अनुयायियों को किस प्रकार अनुभूति करा सकते है । सदगुरु स्वप्न में भी अपने शिष्य से कोई लाभ या सेवा-शुश्रूषा की लालसा नहीं करते, वरन् स्वयं उनकी सेवा करने को ही उद्युत करते है । उन्हें यह कभी भी भान नहीं होता है कि मैं कोई महान हूँ और मेरा शिष्य मुझसे तुच्छ है, अपितु उसे अपने ही सदृश (या ब्रह्मस्वरुप) समझा करते है । सदगुरु की मुख्य विशेषता यही है कि उनके हृदय में सदैव परम शांति विद्यमान रहती है । वे कभी अस्थिर या अशांत नहीं होते और न उन्हे अपने ज्ञान का ही लेशमात्र गर्व होता है । उनके लिये राजा-रंक, स्वर्ग-अपवर्ग सब एक ही समान है । हेमाडपंत कहते है कि मुझे गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप श्री साईबाबा सदृश सदगुरु के चरणों की प्राप्ति तथा उनके कृपापात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वे अपने यौवन काल में चिलम के अतिरिक्त कुछ संग्रह न किया करते थे । न उनके बाल-बच्चे तथा मित्र थे, न घरबार था और न उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त था । 18 वर्ष की अवस्था से ही उनका मनोनिग्रह बड़ा विलक्षण था । वे निर्भय होकर निर्जन स्थानों में विचरण करते एवं सदा आत्मलीन रहते थे । वे सदैव भक्तों की निःस्वार्थ भक्ति देखकर ही उनकी इच्छानुसार आचरण किया करते  थे । उनका कथना था कि मैं सदा भक्त के पराधीन रहता हूँ । जब वे शरीर में थे, उस समय भक्तों ने जो अनुभव किये, उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् आज भी जो उनके शरणागत हो चुके है, उन्हें उसी प्रकार के अनुभव होते रहते है । भक्तों को तो केवल इतना ही यथेष्ठ है कि यदि वे अपने हृदय को भक्ति और विश्वास का दीपक बनाकर उसमें प्रेम की ज्योति प्रज्वलित करें तो ज्ञानज्योति (आत्मसाक्षात्कार-साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश) स्वयं प्रकाशित हो उठेगी । प्रेम के अभाव में शुष्क ज्ञान व्यर्थ है । ऐसा ज्ञान किसी को भी लाभप्रद नहीं हो सकता, प्रेमभाव में संतोष नहीं होता । इसलिये हमारा प्रेम असीम और अटूट होना चाहिये । प्रेम की कीर्ति का गुणगान कौन कर सकता है, जिसकी तुलना में समस्त वस्तुएँ तुच्छ जान पड़ती है । प्रेमरहित पठनपाठन सब निष्फल है । प्रेमांकुर के उदय होते ही भक्ति, वैराग्य, शांति और कल्याणरुपी सम्पत्ति सहज ही प्राप्त हो जाती है । जब तक किसी वस्तु के लिये प्रेम उत्पन्न नहीं होता, तब तक उसे प्राप्त करने की भावना ही उत्पन्न नहीं होती। इसलिये जहाँ व्याकुलता और प्रेम है, वहाँ भगवान् स्वयं प्रगट हो जाते है । भाव में ही प्रेम अंतर्निहित है और वही मोक्ष का कारणीभूत है । यदि कोई व्यक्ति कलुषित भाव से भी किसी सच्चे संत के चरण पकड़ ले तो यह निश्चित है कि वह अवश्य तर जायेगा । 
    साई का अर्थ " साक्षात ईश्वर " , साई का दुसरा अर्थ " ब्रह्म ज्ञान संपन्न " , और तिसरा अर्थ " दैवी मां-बाप " होता हैं ।"साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" अर्थात श्री साईबाबा को अपना गुरु बनाने कि दीक्षा का मतलब, ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान पाना। अपने ब्रह्मज्ञानी गुरु से "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" पाने के लिये सिर्फ अपनी पलके झपके जितना छोटासा वक्त लगता हैं । सृष्टी कि निर्मिती उस ब्रह्म से हुई हैं । ब्रह्मज्ञान भाषा का विषय नही हैं । शब्द का विषय नही हैं । उच्चार का विषय नही हैं । धर्म का विषय नही हैं । गुण , आकार का विषय नही    हैं । शब्द , भाषा , उच्चार , धर्म , गुण , आकार सृष्टी निर्माण के बाद तैयार हुये । ब्रह्म निर्गुण-निराकार हैं । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" वेद , शास्र , पुराण एवम उपनिषदोसे , सदियों-सदियोंसे चला आया हैं । जन्म के पहले हम कहा थे । मृत्यू के बाद हमे कहा जाना हैं । हमारे जन्म से मृत्यू तक हमारा क्या कर्तव्य हैं । क्या हमे चौर्याशी लाख (84,00,000) योनी मे जन्म लेना पडता हैं ? कैसे हम इस जन्म-मृत्यू के फेरोंसे , बंधन से मुक्ती   पाएंगे । कैसे हमे मोक्ष मिलेगा । इसके जबाब के लिये "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" कि आवश्यकता होती हैं । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" मिलना अत्यंत शुभ-भाग्यशाली लक्षण , संकेत माना जाता हैं । सत्ययुग , त्रेतायुग , द्वापारयुग मे तो "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" पाने के लिये ऋषी-मुनियोन्को हजारो साल तपश्चर्या करणी पडती थी , लेकीन इस कलयुग मे तो साक्षात श्री साई हमारे लिये इस धरती पर अवतारित हुये और वही "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" हमे उन्होने बताया , सिखाया , समझाया । हम कितने परम-भाग्यशाली    हैं । हमारे पास अब्जो-अब्जो रुपये है , लेकीन एक "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" नही हैं तो हमारा जीवन व्यर्थ    है । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" प्राप्ती के लिये तो हमे बडे भाग्यसे यह मानव जन्म मिला हैं । श्री साईबाबा हमेशा भक्तोंके गुण, स्वभाव, पात्रता, समय , प्रसंग , वक्त अनुसार "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" देते थे । श्री साई कि लीला अनंत , अगाध और गूढ हैं , वह ज्ञानवान के ही समझ आती है । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" कि दीक्षा देणे वाला गुरु अगर साई बाबा के गुरु परंपरा का अधिकारी पुरुष , जिसे साईबाबा कि विशेष कृपा दृष्टी और आशीर्वाद प्राप्त हो , ऐसा ब्रह्मज्ञानी साई भक्त मिले तो सोने पे सुहागा । ऐसे साई ब्रह्मज्ञानी गुरु को मिलके "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" कि दीक्षा लेना हि हमारे साई भक्ती का और जीवन का सार्थक है ।
फलश्रुती । श्री साई गुरु महात्म्य का प्रतिदिन एक अध्याय पढने से  अंत मे आपको श्री साईबाबा का साक्षात दर्शन होगा और साई ब्रह्मज्ञानी गुरू कि निश्चित प्राप्ती हो जायेगी । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" से हमेशा आपको श्री साईबाबा कि असीम कृपा दृष्टी और आशीर्वाद प्राप्त होंगे । "साई ब्रह्मज्ञान-गुरुमंत्र-उपदेश" से तात्काल आपकी भूत बाधा , ग्रह बाधा , वास्तु दोष , पितृ दोष , वैवाहिक समस्या , शारीरिक-मानसिक व्याधी-रोग-बाधा-दोष , व्यसनाधीनता , व्यापार समस्या , नोकरी समस्या , कोर्ट-कचेरी समस्या आदी आदी सभी दोष-बाधाये , समस्याए हमेशा के लिये समुल उच्चाटन , नष्ठ होंगी , खत्म होंगी । पिछले और इस जन्मके सभी पाप कर्मे धूल जायेंगे , मीट जायेंगे । आपका भाग्य बदल जायेगा और आपके भाग्यका उदय होगा । आपकी सभी मनोकामनाये पुरी होंगी। आपको मनोवाच्छित फल मिलेगा । आपके पिछले और अगले सात पिढीयोन्का उद्धार होंगा । आप जीवन के हर क्षेत्र मे सदा कामयाब , विजयी , यशस्वी होंगे । आपके जीवन मे सदा सुख , शांती , आंनद , आयु-आरोग्य कि प्राप्ती होगी और आपके जीवन के अंतकाल मे आपको निश्चित मोक्ष   मिलेगा । यह श्री साई बाबा का निश्चीत वादा , वचन हैं । ऐसा बिस्वास यह अठरा अध्यायी 'श्री साई गुरु महात्म्य ' लिखने वाले ओझर मिग जिल्हा नासिक महाराष्ट्र निवासी  श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार  दिलाते  हैं ।
 प्रार्थना । हे साई सदगुरु ! भक्तों के कल्पतरु ! हमारी आपसे प्रार्थना है कि आपके अभय चरणों की हमें कभी विस्मृति न हो । आपके श्री चरण कभी भी हमारी दृष्टि से ओझल न हों । हम इस जन्म-मृत्यु के चक्र से संसार में अधिक दुखी है । अब दयाकर इस चक्र से हमारा शीघ्र उद्घार कर दो । हमारी इन्द्रियाँ, जो विषय-पदार्थों की ओर आकर्षित हो रही है, उनकी बाह्य प्रवृत्ति से रक्षा कर, उन्हें अंतर्मुखी बना कर हमें आत्म-दर्शन के योग्य बना दो । जब तक हमारी इन्द्रियों की बहिमुर्खी प्रवृत्ति और चंचल मन पर अंकुश नहीं है, तब तक आत्मसाक्षात्कार की हमें कोई आशा नहीं है । हमारे पुत्र और मीत्र, कोई भी अन्त में हमारे काम न आयेंगे । हे साई ! हमारे तो एकमात्र तुम्हीं हो, जो हमें मोक्ष और आनन्द प्रदान करोगे । हे प्रभु! हमारी तर्कवितर्क तथा अन्य कुप्रवृत्तियों को नष्ट कर दो । हमारी जिव्हा सदैव तुम्हारे नामस्मरण का स्वाद लेती रहे । हे साई ! हमारे अच्छे बुरे सब प्रकार के विचारों को नष्ट कर दो । प्रभु ! कुछ ऐसा कर दो कि जिससे हमें अपने शरीर और गृह में आसक्ति न रहे । हमारा अहंकार सर्वथा निर्मूल हो जाय और हमें एकमात्र तुम्हारे ही नाम की स्मृति बनी रहे तथा शेष सबका विस्मरण हो जाय । हमारे मन की अशान्ति को दूर कर, उसे स्थिर और शान्त करो । हे साई ! यदि तुम हमारे हाथ अपने हाथ में ले लोगे तो अज्ञानरुपी रात्रि का आवरण शीघ्र दूर हो जायेगा और हम तुम्हारे ज्ञान-प्रकाश में सुखपूर्वक विचरण करने लगेंगे । यह जो तुम्हारा लीलामृत पान करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ तथा जिसने हमें अखण्ड निद्रा से जागृत कर दिया है, यह तुम्हारी ही कृपा और हमारे गत जन्मों के शुभ कर्मों का ही फल है । हे प्रभु साई ! हमारी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी बना दो । सत्य और असत्य का विवेक दो तथा सांसारिक पदार्थों से आसक्ति दूर कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करो । हम अपनी काया और प्राण आपके श्री चरणों में अर्पित करते है । हे प्रभु साई ! मेरे नेत्रों को तुम अपने नेत्र बना लो, ताकि हमें सुख और दुःख का अनुभव ही न हो । हे साई ! मेरे शरीर और मन को तुम अपनी इच्छानुकूल चलने दो तथा मेरे चंचल मन को अपने चरणों की शीतल छाया में विश्राम करने दो । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
। श्री साई गुरु महात्म्य समाप्त ।

       श्री साईबाबा के 108 नामावली ।
1. ॐ श्री साई नाथाय नमः 2. ॐ श्री साई लक्ष्मीनारायनाय नमः 3. ॐ श्री साई कृष्णरामशिव मारुत्यादिरुपाय नमः 4. ॐ श्री साई शेषशायिने नमः 5. ॐ श्री साई गोदावरीतट शीलधीवासिने नमः 6. ॐ श्री साई भक्तहृदालयाय नमः 7. ॐ श्री साईं सर्वहन्नीललाय नमः 8. ॐ श्री साई भूतवासाय नमः 9. ॐ श्री साई भूतभविष्यदभाववार्जिताय नमः 10. ॐ श्री साई कालातीताय नमः 11. ॐ श्री साई कालाय नमः 12. ॐ श्री साई कालकालाय नमः 13. ॐ श्री साई कालदर्पदमनाय नमः 14. ॐ श्री साई मृत्युंजय नमः 15. ॐ श्री साई अमर्त्याय नमः 16. ॐ श्री साई मत्यभयप्रदाय नमः 17. ॐ श्री साई जीवाधाराय नमः 18. ॐ श्री साई सर्वाधाराय नमः 19. ॐ श्री साई भक्तावनसमर्थाय नमः 20. ॐ श्री साई भक्तावन प्रतिज्ञान नमः 21. ॐ श्री साई अन्नवस्त्रदाय नमः 22. ॐ श्री साई आरोग्यक्षेमदाय नमः 23. ॐ श्री साई धनमांगल्यप्रदाय नमः 24. ॐ श्री साई रिद्धिसिद्धिदाय नमः 25. ॐ श्री साई पुत्रमित्रकलबन्धुदाय नमः 26. ॐ श्री साई योगक्षेमवहाय नमः 27. ॐ श्री साई आपद् बान्धवाय नमः 28. ॐ श्री साई मार्गबन्धवे नमः 29. ॐ श्री साई भुक्तिमुक्ति स्वर्गापवर्गदाय नमः 30. ॐ श्री साई प्रियाय नमः 31. ॐ श्री साई प्रीति वर्धनाय नमः 32. ॐ श्री साई अंतर्यामिने नमः 33. ॐ श्री साई सच्चिदात्मने नमः 34. ॐ श्री साई नित्यानंदाय नमः 35. ॐ श्री साई परमसुखदाय नमः 36. ॐ श्री साई परमेश्वराय नमः 37. ॐ श्री साई परब्रह्मणे नमः 38. ॐ श्री साई परमात्मने नमः 39. ॐ श्री साई ज्ञानस्वरूपिणे नमः 40. ॐ श्री साई जगतपित्रे नमः 41. ॐ श्री साई भक्तानां मातृधातृपितामहाय नमः 42. ॐ श्री साई भक्ताभयप्रदाय नमः 43. ॐ श्री साई भक्तपराधीनाय नमः 44. ॐ श्री साई भक्तानुग्रहकातराय नमः 45. ॐ श्री साई शरणागतवत्सलाय नमः 46. ॐ श्री साई भक्तिशक्तिप्रदाय नमः 47. ॐ श्री साई ज्ञानवैराग्यदाय नमः 48. ॐ श्री साई प्रेमप्रदाय नमः 49. ॐ श्री साई संशय ह्रदय दौर्बल्य पापकर्म नमः 50. ॐ श्री साई ह्रदयग्रंथिभेदकाय नमः 51. ॐ श्री साई कर्मध्वंसिने नमः 52. ॐ श्री साई शुद्ध सत्वस्थिताय नमः 53. ॐ श्री साई गुणातीत गुणात्मने नमः 54. ॐ श्री साई अनंत कल्याणगुणाय नमः 55. ॐ श्री साई अमितपराक्रमाय नमः 56. ॐ श्री साई जयिने नमः 57. ॐ श्री साई दुर्धर्षाक्षोभ्याय नमः 58. ॐ श्री साई अपराजिताय नमः 59. ॐ श्री साई त्रिलोकेशु अविघातगतये नमः 60. ॐ श्री साईं अशक्यरहिताय नमः 61. ॐ श्री साईं सर्वशक्तिमुर्तये नमः 62. ॐ श्री साईं सुरूपसुन्दराय नमः 63. ॐ श्री साईं सुलोचनाय नमः 64. ॐ श्री साईं बहुरूपविश्वमुर्तये नमः 65. ॐ श्री साईं अरूपाव्यक्ताय नमः 66. ॐ श्री साईं अचिन्त्याय नमः 67. ॐ श्री साईं सूक्ष्माय नमः 68. ॐ श्री साईं सर्वन्तार्यामिने नमः 69. ॐ श्री साईं मनोवागतीताय नमः 70. ॐ श्री साईं प्रेममूर्तये नमः 71. ॐ श्री साईं सुलभदुर्लभाय नमः 72. ॐ श्री साईं असहायसहायाय नमः 73. ॐ श्री साईं अनाथनाथदीनबन्धवे नमः 74. ॐ श्री साईं सर्वभारभ्रुते नमः 75. ॐ श्री साईं अकर्मानेककर्मसुकर्मिने नमः 76. ॐ श्री साईं पुण्यश्रवणकीर्तनाय नमः 77. ॐ श्री साईं तीर्थाय नमः 78. ॐ श्री साईं वासुदेवाय नमः 79. ॐ श्री साईं सतांगतये नमः 80. ॐ श्री साईं सत्परायनाय नमः 81. ॐ श्री साईं लोकनाथाय नमः 82. ॐ श्री साईं पावनान्घाय नमः 83. ॐ श्री साईं अमृतांशवे नमः 84. ॐ श्री साईं भास्करप्रभाय नमः 85. ॐ श्री साईं ब्रह्मचर्य तपश्चर्यादि सुव्रताय नमः 86. ॐ श्री साईं सत्यधर्मंपरायनाय नमः 87. ॐ श्री साईं सिद्धेश्वराय नमः 88. ॐ श्री साईं सिद्धसंकल्पाय नमः 89. ॐ श्री साईं योगेश्वराय नमः 90. ॐ श्री साईं भगवते नमः 91. ॐ श्री साईं भक्तवत्सलाय नमः 92. ॐ श्री साईं सत्पुरुषाय नमः 93. ॐ श्री साईं पुरुषोत्तमाय नमः 94. ॐ श्री साईं सत्यतत्त्वबोधकाय नमः 95. ॐ श्री साईं कामदिषड्वैरिध्वंसिने नमः 96. ॐ श्री साईं अभेदानंदानुभवप्रदाय नमः 97. ॐ श्री साईं समसर्वमतसमताय नमः 98. ॐ श्री साईं दक्षिणामूर्तये नमः 99. ॐ श्री साईं वेन्कतेशरमनाय नमः 100. ॐ श्री साईं अदभुतानन्तचर्याय नमः 101. ॐ श्री साईं प्रपन्नार्तिहराय नमः 102. ॐ श्री साईं संसारसर्वदुःखक्षयकराय नमः 103. ॐ श्री साईं सर्ववित्सर्वतोमुखाय नमः 104. ॐ श्री साईं सर्वान्तर्बहि: स्थिताय नमः 105. ॐ श्री साईं सर्वमंगलकराय नमः 106. ॐ श्री साईं सर्वाभीष्टप्रदाय नमः 107. ॐ श्री साईं समरससनमार्गस्थापनाय नमः 108. ॐ श्री साईं समर्थ सदगुरु साईनाथाय नमः । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।


Selection of 101 Shirdi 
Sai Baba Sayings

1) Why fear when I am here? 2) I am formless and everywhere. 3) I am in everything and beyond. I fill all space. 4) All that you see taken together is Myself. 5) I do not shake or move. 6) If one devotes their entire time to me and rests in me, need fear nothing for body and soul. 7) If one sees me and me alone and listens to my Leelas and is devoted to me alone, they will reach God. 8) My business is to give blessings. 9) I get angry with none. Will a mother get angry with her children? Will the ocean send back the waters to the several rivers? 10) I will take you to the end. 11) Surrender completely to God. 12) If you make me the sole object of your thoughts and aims, you will gain the supreme goal. 13) Trust in the Guru fully. That is the only sadhana. 14) I am the slave of my devotee. 15) Stay by me and keep quiet. I will do the rest. 16) What is our duty? To behave properly. That is enough. 17) My eye is ever on those who love me. 18) Whatever you do, wherever you may be, always bear this in mind: I am always aware of everything you do. 19) I will not allow my devotees to come to harm. 20) If a devotee is about to fall, I stretch out my hands to support him or her. 21) I think of my people day and night. I say their names over and over. 22) My treasury is open but no one brings carts to take from it. I say, “Dig!” but no one bothers. 23) My people do not come to me of their own accord; it is I who seek and bring them to me. 24) All that is seen is my form: ant, fly, prince, and pauper. 25) However distant my people may be, I draw them to me just as we pull a bird to us with a string tied to its foot. 26) I love devotion. 27) This body is just my house. My guru has long ago taken me away from it. 28) Those who think that Baba is only in Shirdi have totally failed to know me. 29) Without my grace, not even a leaf can move. 30) I look on all with an equal eye. 31) I cannot do anything without God’s permission. 32) God has agents everywhere and their powers are vast. 33) I have to take care of my children day and night and give an account to God of every paisa. The wise are cheerful and content with their lot in life. 34) If you are wealthy, be humble. Plants bend when they bear fruit. 35) Spend money in charity; be generous and munificent but not extravagant. 36) Get on with your worldly activities cheerfully, but do not forget God. 37) Do not kick against the pricks of life. 38) Whatever creature comes to you, human or otherwise, treat it with consideration. 39) Do not be obsessed by the importance of wealth. 40) See the divine in the human being. 41) Do not bark at people and don’t be aggressive, but put up with others’complaints. 42) There is a wall of separation between oneself and others and between you and me. Destroy this wall! 43) Give food to the hungry, water to the thirsty, and clothes to the naked. Then God will be pleased. 44) Saburi (patience) ferries you across to the distant goal. 45) The four sadhanas and the six Sastras are not necessary. Just has complete trust in your guru: it is enough. 46) Meditate on me either with form or without form, that is pure bliss. 47) God is not so far away. He is not in the heavens above, nor in hell below. He is always near you. 48) If anyone gets angry with another, they wound me to the quick. 49) If you cannot endure abuse from another, just say a simple word or two, or else leave. 50) What do we lose by another’s good fortune? Let us celebrate with them, or strive to emulate them. 51) That should be our desire and determination. 52) I stay by the side of whoever repeats my name. 53) If formless meditation is difficult, then think of my form just as you see it here. With such meditation, the difference between subject and object is lost and the mind dissolves in unity. 54) If anyone offends you do not return tit for tat. 55) I am the slave of those who hunger and thirst after me and treat everything else as unimportant. 56) Whoever makes me the sole object of their love, merges in me like a river in the ocean. 57) Look to me and I will look to you. 58) What God gives is never exhausted, what man gives never lasts. 59) Be contented and cheerful with what comes. 60) My devotees see everything as their Guru. 61) Poverty is the highest of riches and a thousand times superior to a king’s wealth. 62) Put full faith in God’s providence. 63) Whoever withdraws their heart from wife, child, and parents and loves me, is my real lover. 64) Distinguish right from wrong and be honest, upright and virtuous. 65) Do not be obsessed by egotism, imagining that you are the cause of action: everything is due to God. 66) If we see all actions as God’s doing, we will be unattached and free from karmic bondage. 67) Other people’s acts will affect just them. It is only your own deeds that will affect you. 68) Do not be idle: work, utter God’s name and read the scriptures. 69) If you avoid rivalry and dispute, God will protect you. 70) People abuse their own friends and family, but it is only after performing many meritorious acts that one gets a human birth. Why then come to Shirdi and slander people? 71) Speak the truth and truth alone. 72) No one wants to take from me what I give abundantly. 73) Do not fight with anyone, nor retaliate, nor slander anyone. 74) Harsh words cannot pierce your body. If anybody speaks ill of you, just continue on unperturbed. 75) Choose friends who will stick to you till the end, through thick and thin. 76) Meditate on what you read and think of God. 77) I give my devotees whatever they ask, until they ask for what I want to give. 78) You should not stay for even one second at a place where people are speaking disrespectfully of a saint. 79) If you do not want to part with what you have, do not lie and claim that you have nothing, but decline politely saying that circumstances or your own desires prevent you. 80) Let us be humble. 81) Satsang that is associating with the good is good. Dussaya, or associating with evil-minded people, is evil and must be avoided. 82) What you sow, you reap. What you give, you get. 83) Recognize the existence of the Moral Law as governing results. Then unswervingly follow this Law. 84) All gods are one. There is no difference between a Hindu and a Muslim. Mosque and temple are the same. 85) Fulfill any promises you have made. 86) Death and life are the manifestations of God’s activity. You cannot separate the two. God permeates all. 87) Mukti is impossible for those addicted to lust. 88) Gain and loss, birth and death are in the hands of God. 89) When you see with your inner eye. Then you realize that you are God and not different from Him. 90) Avoid unnecessary disputation.91) The giver gives, but really he is sowing the seed for later: the gift of a rich harvest. 92) Wealth is really a means to work out dharma. If one uses it merely for personal enjoyment, it is vainly spent. 93) To God be the praise. I am only the slave of God. 94) God will show His love. He is kind to all. 95) Whenever you undertake to do something, do it thoroughly or not at all. 96) One’s sin will not cease till one falls at the feet of Sadhus. 97) Be ashamed of your hatred. Give up hatred and be quiet. 98) The Moral Law is inexorable, so follow it, observe it, and you will reach your goal: God is the perfection of the Moral Law. 99) I am your servants’ servant. 100) Always think of God and you will see what He does. 101) Have faith and patience. Then I will be always with you wherever you are. । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
Eleven Assurances of Shirdi SaiBaba
1. Whoever steps on the sacred land of Shirdi, his sufferings will end immediately. 2. whoever climbs the steps of my Samadhi end will come to his miseries and afflictions. 3. Even though I have left my body I will come running for my devotees. 4. Wishes and desires are fulfilled here at my Samadhi keep faith and firm mind on it. 5. I am ever alive, know this truth know this by the experience of your self. 6. If anybody in refuge to me has gone empty show me a single inquirer such as that. 7. Whoever devoted to me with any feelings will receive me with the same feelings. 8. I will carry your burden always there is no doubt, this is my promise. 9. Everybody will find help and support here they will get what they ask for. 10. whoever becomes mine, with his body, mind and speech I am indebted to him always and forever. 11. Who ever chants the name of Sai will be overwhelmed one who is graced at my feet. । श्री सदगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभम भवतु ।
शिर्डी के श्री साईबाबा और 9 अंक ।
शिर्डी के श्री साईबाबा कि संपूर्ण जन्म तारीख 27/09/1838 और जन्म समय प्रदोष काल 7 (सात) बजे , वार गुरुवार बताते  हैं । संपूर्ण तारीख और समय मिलाओ आखरी संख्या 9 हि आती है । वैसे भी तारीख 27 = 2 + 7 = संख्या 9 आती है और माह 09 = 0 + 9 = संख्या 9 आती है । साईबाबा के समाधी कि संपूर्ण तारीख 15/10/1918 और समाधी समय दोपहर 02 दो बजे 35 पैतीस मिनट , वार मंगलवार हैं । समाधी कि संपूर्ण तारीख और समाधी समय मिलाओ आखरी संख्या 9 हि आती है । शिर्डी मे श्री साईबाबा कि मूर्ती स्थापना संपूर्ण तारीख 7/10/1954 हैं । संपूर्ण तारीख कि संख्या मिलाओ 9 हि आती हैं । उस समय समाधी वर्ष 36 वा चल रहा था।3+6 फिर 9 आया। समाधी पूर्व चार माह पहले औरंगाबाद के संत बन्ने मिया को साई बाबा ने एक खत लिखकर संदेशा भेजा कि,
' 9 (नौ ) दिन, 9 (नौ ) रात, अल्लामिया अपना धुनिया ले जायेगा मर्जी अल्ल्हाकी '। साईबाबा को कोई श्री साईबाबा, साईनाथ, फकीर कहते थे । अंग्रेजी अंक शास्रसे ((Numerology :- A-1, B-2, C-3, D-4, E-5 ,F-6, G-7, H-8, I-9, J-10, K-11, L-12, M-13, N-14, O-15, P-16, Q-17, R-18, S-19, T-20, U-21, V-22, W-23, X-24, Y-25, Z-26.) साईनाथ SAINATH ,श्री साईबाबा SHREE SAIBABA ,फकीर FAKIR इन सबका का अंक 9 (नौ ) आता हैं । साईबाबा का जन्म गांव ठिकाण पाथरी PATHRI और राज्य महाराष्ट्र MAHARASHTRA बताते हैं । PATHRI और MAHARASHTRA का अंग्रेजी अंक शास्रसे अंक 9 हि आता हैं । बाबा ने लक्ष्मीबाई की सेवाओं को सदैव स्मरण रखा । बाबा उनको भुला भी कैसे सकते थे। देह-त्याग के बिल्कुल पूर्व बाबा ने अपनी जेब में हाथ डाला और पहले उन्होंने लक्ष्मी को पाँच रुपये और बाद में चार रुपये, इस प्रकार कुल नौ रुपये दिये । यह नौ की संख्या नव विधा भक्ति की घोतक है अथवा यह सीमोल्लंघन के समय दी जाने वाली दक्षिणा भी हो सकती है। लक्ष्मीबाई एक सुसंपन्न महिला थी । अतएव उन्हें रुपयों की कोई आवश्यकता नहीं थी । इस कारण संभव है कि बाबा ने उनका ध्यान प्रमुख रुप से श्री मदभागवत के स्कन्ध 11, अध्याय 10 के श्लोंक सं. 6 की ओर आकर्षित किया हो, जिसमे उत्कृष्ट-उच्च कोटि के भक्त के नौ लक्षणों का वर्णन है, जिनमें से पहले 5 और बाद मे 4 लक्षणों का क्रमशः प्रथम और द्घितीय चरणों में उल्लेख हुआ है । बाबा ने भी उसी क्रम का पालन किया (पहले 5 और बाद में 4, कुल 9) केवल 9 रुपये ही नहीं बल्कि नौ के कई गुने रुपये लक्ष्मीबाई के हाथों में आये-गये होंगे, किन्तु बाबा के द्वारा प्रदत्त यह नौ (रुपये) का उपहार वह महिला सदैव स्मरण रखेगी । श्री साईबाबा हमेशा भक्तोंके गुण, स्वभाव, पात्रता, समय , प्रसंग , वक्त अनुसार नवविधा भक्ती ( भक्ति के 9 नौ प्रकार ) कि शिक्षा-ज्ञान देते 
थे ।
श्री साईबाबा का सबसे बडा सन्देश 
" सबका मालिक एक " है ।    
साईबाबा का सबसे बडा सन्देश "सबका मालिक एक" है । अब इस लिंक को देखे Link- http://www.shreesaibabasansthan.com/calender.html इसमे अंग्रेजी अंक शास्रसे((Numerology) सभी धर्मो के महापुरुषोके नाम का अंक 9 हि आता हैं । जैसे श्री कृष्ण (SHREE KIRSHNA) का 9 अंक आता हैं ।.......... इससे यह पता चलता हैं कि, क्यो श्री साईबाबा हमेशा "सबका मालिक एक" कहते थे । इस लिंक में दिखाया गया "सबका मालिक एक" यह शोध (Discovered), ओझर मिग. नाशिक, महाराष्ट्र निवासी  श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार  इन्होने लगाया है ।
 
श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार ।
क्यो श्री साईबाबा हमेशा "सबका मालिक एक" कहते थे। http://www.shreesaibabasansthan.com/calender.html इस लिंक में दिखाया गया "सबका मालिक एक" यह शोध (Discovered), ओझर मिग. नाशिक, महाराष्ट्र निवासी  श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार  इन्होने लगाया है । अंग्रेजी अंक शास्रसे((Numerology) श्री साई भक्त अरुणजी का नाम अरुण ARUN, अंक 9 आता हैं । उनके पिताजी का नाम RAMCHANDRA, अंक 9 आता हैं । उनके माताजी का नाम सुंदराबाई SUNDARABAI, अंक 9 आता हैं । उनका आखरी नाम (सरनेम) शेलार SHELAR, अंक 9 आता हैं । उनके पत्नी का नाम वैशाली VAISHALI, अंक 9 आता हैं । उनकी लडकी का नाम गायत्री GAYATRI, अंक 9 आता   हैं । उनके लडके का नाम चैतन्य CHAITANYA, संख्या 9 आती हैं। उनका जन्म गाव ( जहा अभीभी रहते हैं ।) ओझर मिग OJHAR MIG, अंक 9 आता हैं । उनके जन्म गाव का जिल्हा नासिक NASIK, अंक 9 आता हैं । उनके राज्य का नाम महाराष्ट्र MAHARASHTRA, अंक 9 आता हैं । इसलिये तो अरुणजी शेलार को लोग सच्चे श्री गुरुवर्य साई भक्त कहते हैं ।  

         * श्री साईबाबांचे परम भक्त दास गणू लिखित साई गुरु पाठाचे २५ अभंग * 

( हे अभंग अत्यंत दुर्मिळ, दुर्लभ व गुप्त असे असून प्रत्यक्ष साईबाबांचे आज्ञे वरून, साईबाबांचे 
समोर बसून दास गणू महाराज यांनी तयार केलेले असून हे अभंग फक्त ज्यांनी श्री साईबाबांचा 
गुरुमंत्र / गुरु उपदेश घेतलेला होता अश्या साठी रोज एकदा म्हणण्यासाठी तयार केलेले होते.)


याची ती रुपे सगुण निर्गूण, ऐसा नारायण वंदू आधी lसगूण सेविता निर्गूण ये हाती, निर्गूणाची प्राप्ती आरंभी ना llआधी मुलं काढी क ख बाराखडी, मग शब्द जोडी झाल्या ज्ञान lगणू म्हणे ऐसी सगुणोपासना, बाराखडी जाणा अध्यात्म्याची ll १ ll
तीही बाराखडी शिकवी जो गुरु, भवाब्धीचे तारू तोच जाणा lगुरुसेवा हीच प्रथम पायरी, असे टिकण्या भारी अवघड llसदगुरुरायाची कृपा संपादिता, सेवेचि पूर्तता सहज होई lगणू म्हणे केल्या प्रसन्न सविता, प्रभेची न्युनता केवी पडे ll २ ll
सदगुरुरायाची सेवा बहुतांनी केली, ऐसी साक्ष दिधली पुराणांनी lपुर्णब्रम्ह राम जानकीचा कांत, झाला शरणागत वसिष्ठांशी llरुक्मिणीवल्लभे केला सांदिपनी आपणालागी गुरुराय lगणू म्हणे गुरुवाचुनिया नर, तोचि जाणा खरं दो पायांचा ll ३ ll
निष्ठावंत भाव हाच देतो फळं, अभक्तिचा मळ निमालिया lचहाड दुतोंड्या ऐसा नारद मुनि, परी झाला तरणी प्रल्हादाते llगोपिचंदे गुरु लिदिसी गाढीला, परी तोची झाला वंद्य त्याते lगणू म्हणे सोने चढे मोलाअंगे, कसोटीच्या संगे जगामाजी ll ४ ll
क्षमा शांति दया असे जया ठायी, तैसे ज्ञान पाही संपूर्ण कते lजयाचिये शिरी ईश्वराचा हात, तोच सदगुरूनाथ करावा हो llबाहेरील सोंगा भुलु नका कदा, पतंगाते दगा दिपापाशी lगणू म्हणे हंस पाण्याते टाकोनि, घेतसे शोधोनि जैसे दूध ll ५ ll
हिरे आणि गारा एक्याच खाणीत, तैसे बद्ध मुक्त जगामाजी lपारखी तो येता हिरा घे वेचुनी, कुक्कुट पायानी कालवी तो llमुमुक्षु पारखी चार्वाक कोंबडा, कुक्कुटा उकिरडा गोड वाटे lगणू म्हणे जो का असे भाग्यवंत, तयाचाच हेत गुरुपायी ll ६ ll 
क्षमा शांतियुक्त भवाब्धिचे जहाज, ऐसा सदगुरूराज शिरडीमाजी lनानाविधा शोभे जया साई, अनाथांची माई तीच जाणा llअनाथ सनाथ हा न भेद जेथे, सुर्यप्रकाशाते निवड कैची lमाझा गुरुनाथ जान्हविचे जळ, गणू अर्पी भाळ तया पायी ll ७ ll
अंगकाठी उंच केलीसे धारण, कळावया लीन भक्तजना lउच्च ज्ञान जे का अध्यात्म साजिरे, तेची सेवा सारे कल्याणार्थ llपरी नका सोडू ठेंगडी लीनता, न ये थोर बाल्याविण lगणू म्हणे वर्ण तांबूस सावळा, सदगुरूरायाची लिला अगाधची ll ८ ll
सदगुरूरायाने जला तेल केले, दीप उजळिले लक्षावधी lठेवुनिया दीप उशा पायथ्याशी, पहुडे फळीसी गुरुमुर्ती llत्यांच्या ह्या कृतिचा हाच आहे अर्थ, कदा अंधारात निजु नये lगणू म्हणे माया दुर्धर अंधार, ज्ञानदीप थोर म्हणून लावा ll ९ ll
शिव विष्णु ब्रम्ह आहे बाबा साई, भाव दुजा काही मानु नका lसदगुरूरायांच्या पायाची जी धूळ, तेच गंगाजल शुद्ध माना llअमृता आगळी मुखींची वचने, तीच माना मने गीता जेवी lगणू म्हणे बाबा वसंत सोज्वळ, भक्तांनो कोकिळ व्हारे तुम्ही ll १० ll
परमार्थाची आस आहे मनातून, त्याने हे चरण पहावे आधी lऐहिक सुखाशी देउनिया फाटा, भक्तिच्या त्या वाटा ढुंढाळाव्या llद्वेषाचे सराटे फेकुनिया द्यावे, साईमय पहावे जगालागी lगणु म्हणे तरी तुम्ही त्यांचे भक्त, शोभाल जगात सज्जनांनो ll ११ ll
शिर्डी क्षेत्र नोहे पचंबा बाजार, येथे दुकानदार परमार्थाचा lऐहिक सुखाचि खेळणी बाहुल्या, समूळ फेकिल्या गुरुराये llकाकि तयामाजि किमपी न अर्थ, फसतील पोरे व्यर्थ माझी lगणू म्हणे पोर पचंब्यासि जाते, किरकिरेच घेते आवडीने ll १२ ll
कर्म भक्ति बाजारी या माल, मनी जो वाटेल तोचि घ्यावा lतिघांची किंमत एक आहे जाणा, फळही तिघांना एकची हो llभावरुपी द्रव्य पाहिजे तयासी, साई सदगुरूसी दुजे न लगे lगणू म्हणे भावरुपी नाणेआहे जयापाशी, त्याने बाजारासी तेथे जावे ll १३ ll
फळ ते पाथेय घ्यावे फराळासी, मग पंढरीसी जावे सुखे lबाबाजीने कृपा तुकोबासि केली, तयीच फळली पंढरी त्या llथापटणे गोर्‍याने मारुन नाम्याला, कच्चा ठरविला देवापुढे lगणू म्हणे मग खेचर माऊली, नाम्याने वंदिली कल्याणार्थ ll १४ ll
निवृति ज्ञानेश ईश्वरी अवतार, परी गुरुवर गहिनी केला lगुरुकृपेवीण एकालाही जनी, विठू चक्रपाणी भेटला ना llपंढरीरायाची मनी असलिया आस्, सदगुरुची कास दृढ धरा lगणू म्हणे जया भवाचे ना भय, त्याचे चित्ती पाय सदगुरूचे ll १५ ll
शुक सनकादि नारद अंबरीश, निवृति ज्ञानेश नामा तुका lदास तुलसी चोख्या जयदेव सावंता, पंत नाथ मेहता कबीर तो llबोधला पवार विसोबा खेचर, गोरोबा कुंभार कुर्मदास lगणू म्हणे त्याच कोटीतला साई, चला त्याच्या पायी लीन होऊ ll १६ ll
जरी या संतांच्या मुर्ती हो लोपल्या, साईरुपे उरल्या पहावया lत्रिभुवनामाजी जे जे कोणी संत, ते ते साईनाथ मजलागी llभेदबुद्धी नुपजो माझी संताठायी, संत शेषषायी प्रत्यक्षची lगणूदास आहे संतांचा अंकित, भेटो पंढरीनाथ त्यांच्या कृपे ll १७ ll
भक्तिरुप गंगा वाहे जया ठायी, तेथे माझा साई राहे उभा lहस्तसंकेताने पालवितो लोका, या हो फिरु नका रानोमाळ llमज ओळखावे आहे मी कोठला, कशासाठी आला शिरडीसी lपंढरीक्षेत्रीचा मीच हो वाटाड्या, गणुच्या त्या उड्या साईबळे ll १८ ll
मज ना विचारिता पंढरीच्या वाटे, जाल तरी काटे रुततील lपंढरीची वाट मोठी अवघड, मोठे मोठे पहाड मार्गामाजी llतयाचे ते वज्र आहे मजपाशी, तसा हृषिकेशी ओळखिचा lगणू म्हणे जन्मोजन्मी नाही तुटी, साईंच्या जगजेठी हृदयात ll १९ ll
म्हणून ही संधी दवडु नका कोणी, पडाल मागुन पस्तावात lदंभाचे हे गाठोडे एकीकडे ठेवा, विकल्प सोडा घातक जो llक्रोधाची ती होळी ज्ञानग्नीने करा, वासनेसी मारा अभ्यासाने lगणु म्हणे ऐश्या व्रतासी जो पाळी, तयासी सांभाळी साई माझा ll २० ll
करु नका नाश या आयुष्याचा, जन्म मानवाचा पुन्हा नाही lप्रत्येक जन्मात कन्या पोरे घर, मैथुन आहार आणि निद्रा llनरजन्म नाही ऐशा कृत्यासाठी, बांधा खुणगाठी मनामाजी lजोडू जाता जोडे जन्मी या ईश्वर, नरजन्म थोर गणू म्हणे ll २१ ll
लोभ मोहमाया टाकून अवघ्यांची, धरा सदगुरुची पाऊले ती lगुरुपायामाजी आहे सर्व काही, गुरुविण नाही सार्थकता llगुरु कामधेनू गुरु कल्पलता, चिंतेसी वारिता चिंतामणी lगुरुभक्तिठायी जो का एकनिष्ठ, त्रिलोकी तो श्रेष्ठ गणू म्हणे ll २२ ll
गुरुपदी भाव विठुसी अबोला, ऐशा मानवाला मोक्ष नोहे l भोपळा हातात परी धोंडा कंठी, बांधल्या शेवटी घात घडे llगुरुरुपी देह आत्मा पांडुरंग, केल्या येई रंग एक्या ठायी lएक्या अव्हेरिता एक न ये हाता, दोघांची योग्यता सारखीच llगुरु आणी देव यात केल्या तुटी, दुख्खाची नरोटी येई हाता l
गणू म्हणे रहा सावध या साठी, गुरु जगजेठी एकरुप ll २३ ll
साईबाबा आणी सदगुरू वामन, हे न दोघे भिन्न एकरुप lभाव साधकांनी ठेवा दोघापायी, परी विठाबाई गावी वाचे llसाई वामनाचे करावे पूजन, राखावा सन्मान भूपतिचा lपरमार्थात भक्ति व्यवहारी नीती, संसारा विरक्ति गणू म्हणे ll २४ ll
गुरुपाठाचे हे अभंग पंचवीस, जपता होय नाश पातकांचा lगुरुचे पवाडे गाता मोक्ष लाभे, नका मरु दंभे निरर्थक llसाईमहाराजांचा धरुनीया हात, तरा भवाब्धीत बुडू नका lसाईंच्या इच्छेने होते अवघे काही, गणुकडे नाही बोल याचा ll २५ ll - श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार.
 
Shree Guruvarya Sai Bhakt Arunji Shelar .


Shree Guruvarya Arunji Shelar (Sai Bhakt) has born on 30th August 1967 at Ojhar MiG, Near to Nasik City in Maharashtra State, India. He is from respectable and poor family. Unfortunately, he has lost his father in his childhood. Presently, his family consists of his mother, sister and a brother. From the very childhood , he had fascination of spiritual life. In addition to his obtaining degree in Arts, during his young age, he participated in Bhajans, Kirtans, & all other religious activities. He has done studies in Astrology. Side by side, he had developed his attraction towards Shree Saibaba, Shirdi and with the passage of time, his worship towards Shree Saibaba went on increasing. In his revelation, Shree Saibaba has explained him with statistics the meaning of Sabka Malik Ek, which he means to derive the meaning that “SAINATH IS IN ALL OF US”. Not only this, but Sai Baba has inspired him to spread the said message throughout the world at large. Accordingly, having prepared the figurative statistics and a animated movie of Shree Saibaba,http://www.shreesaibabasansthan.com/calender.html he has started spreading the said message amongst each and everybody on the earth. However, in the present scenario and increasing trend of work, necessity of a temple was very much felt. Accordingly, as per the advice of Shree Saibaba, having spent his own funds, Guruvarya Shree Arunji Shelar has constructed a marvelous temple of Shree Saibaba on 26/8/2005. Also temple of Shree Ganesh on 11/9/2010. Now-days, on every Thursday, Huge mob is seen in the temple for Darshan of Lord Sai. Whoever visits this temple and takes Darshan of Sai Baba, Sai Baba fulfills his desires which has been accepted by people in the nearby area. Not only this,but every day,the Bhaktas also do not forget to take darshan of "Sainath is in all of us", and poster personally given by Sai Baba in revelation. Daily, in the temple, like Shirdi Temple, every day, Reading of Sai Charitra, Poojas,Aartis etc. are held. Also Food donation camps, Blood Donation camps, tree plantation and other social, cultural and educational programs are being held annually.https://www.facebook.com/video/?id=100000117825467 With the increasing trend of heavy rush in the temple, it is felt to built -up a New Temple in Ojhar area which had already designed FUTURE PLAN OF 
SHREE SAIBABA TEMPLE.


VIDEO - श्री साईबाबा और उनकी  
गुरु परंपरा (साईचरित्र)।
अधिक जानकारी के लिये संपर्क करे ।  
Shri Guruvarya Arunji Shelar. 
President- SHREE SAIBABA SEVA SAMITI OJHAR (MIG), Shree Saibaba Mandir Ojhar Mig.13, Banganga Complex, Near Old Water Tank, Ojhar MiG, Dist.Nasik – 422 206. Maharashtra, INDIA. 
Email : sairam30867@gmail.com Mob. : 9158583999.

     
श्री साई बाबा के जीवन कार्य काल के दुर्लभ चित्र 

































श्री साईबाबा के कृपा दृष्टी से प्राप्त  हुआ दिव्य दृष्टांत 

श्रद्धा और सबुरी साईने मंत्र बताया |   
साई के द्वारसे कोई खाली न गया ||
धर्म सभी के नेक है | 
रास्ते सभी के अनेक है || 
पर सब की मंजिल एक है | 
सब के मालिक साईनाथ है || 
श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार इनको श्री साईबाबा के कृपा दृष्टी से प्राप्त हुये दिव्य दृष्टांत अर्थात 'सबका मालिक एक' तथा 'सबके साथ साईनाथ' का दैवी चमत्कारोंका दृष्टांत फोटो नीचे प्रस्तुत किया है । इस दृष्टांत फोटो को आप प्रत्यक्ष लाइव्ह (LIVE) देखे -http://www.shreesaibabasansthan.com/calender.html । साईबाबा कि अपनोंके उपर हमेशा के लिये कृपा दृष्टी तथा 'साईनाथ अपनोंके साथ' बनाये रखने हेतू कृपया इस दृष्टांत फोटो को अपने घर, दुकान, ऑफिस एवं गावोंके मंदिरोमें लगाये।


श्री गुरुवर्य साई भक्त अरुणजी शेलार .


!!!!!!!! OM SAI RAM !!!!!!!! 
(सूचना - उपर लिखे हुए मजकूर / वृतांत / टिपणी / लेख / आख्यायिका / कथा / चित्र / संकेत स्थल यह साई वाड्मय कि अलग अलग लेखक कि अलग अलग निजी राय हैं । किसीको विरोध / आहत / चोट / क्षती / श्रद्धा को ठेस पहुचाना या किसीका दिल दुखाना , दुरपयोग कराना मक्सद नही हैं । अगर कोई सबंध लग जाता हैं तो माफ करे ।)